३२६ तो स्वभावका अंश है।
समाधानः- ज्ञान तो स्वभावका अंश है।
मुमुक्षुः- ये तो ज्ञान-से भी भिन्न करता है। भूल हमारी ऐसी होती है। ज्ञान- से भिन्न ज्ञायक।
समाधानः- अपूर्ण ज्ञान जितना मैं नहीं हूँ। पूर्ण शाश्वत हूँ। ये क्षयोपशम ज्ञान, मति-श्रुत पर्याय, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान आदि जो भेद पडते हैं, वह भेद जो अपूर्ण पडते हैं वह मेरा पूर्ण स्वभाव नहीं है। पूर्णको ग्रहण करना, अपूर्णको ग्रहण नहीं करना। जिसमें रागके कारण, निमित्तके कारण अपूर्ण पर्याय है, उसे ग्रहण नहीं करके स्वयंका पूर्ण स्वरूप, जिसे स्वयंका चैतन्यका स्वरूप ग्रहण करना है, उसे पूर्ण स्वरूप ग्रहण करना चाहिये। अपूर्ण ग्रहण करे तो भी पूर्ण स्वरूप ग्रहण नहीं किया है। इसलिये पूर्ण स्वरूप ग्रहण करना। फिर ये सब तो अपूर्ण पर्यायें हैं। केवलज्ञान होता है वह पूर्ण पर्याय है। परन्तु पर्याय है, ऐसा उसका ज्ञान करना। पर्याय है, लेकिन वह चैतन्यकी साधनामें प्रगट होती पर्याय है, उसका ज्ञान करना। परन्तु है पर्याय, उसका ज्ञान करना। उससे कहीं भेदज्ञान नहीं करना है।
मुमुक्षुः- चैतन्यकी साधनामें प्रगट होती पर्यायें हैं।
समाधानः- चैतन्यकी साधनामें प्रगट होती पर्याय केवलज्ञान है।
मुमुक्षुः- फिर भी उस अपूर्णका आश्रय नहीं करना है, आश्रय तो एकका ही करना है।
समाधानः- आश्रय तो पूर्णका करना है। आश्रय अनादिअनन्त द्रव्यका आश्रय है। आश्रय करने-से उसमें शुद्ध पर्यायें प्रगट होती हैं।
मुमुक्षुः- स्वभावकी ही महिमा। समाधानः- स्वभावकी महिमा, पूर्णकी महिमा। अपूर्णकी महिमा नहीं, पूर्ण स्वभावकी महिमा।