અંશે આચરણ હોય તો શ્રદ્ધા-જ્ઞાન થાય? 0 Play अंशे आचरण होय तो श्रद्धा-ज्ञान थाय? 0 Play
જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવું હોય તો શું સમકિતી–જ્ઞાનીની નજીક રહીને જ્ઞાન યથાર્થ થઈ શકે? 1:00 Play ज्ञान प्राप्त करवुं होय तो शुं समकिती–ज्ञानीनी नजीक रहीने ज्ञान यथार्थ थई शके? 1:00 Play
આત્માનું એક જ કરવા જેવું છે, 4:20 Play आत्मानुं एक ज करवा जेवुं छे, 4:20 Play
સમ્યગ્દર્શન થયા પહેલાના જ્ઞાનને યથાર્થ નામ આપી શકાય નહીં તે વિષે.... 5:15 Play सम्यग्दर्शन थया पहेलाना ज्ञानने यथार्थ नाम आपी शकाय नहीं ते विषे.... 5:15 Play
(સમ્યગ્દર્શન થતા) બધા ગુણોની શુદ્ધિની વૃદ્ધિ થતી જાય છે તે કેવી રીતે? 6:05 Play (सम्यग्दर्शन थता) बधा गुणोनी शुद्धिनी वृद्धि थती जाय छे ते केवी रीते? 6:05 Play
ગઈકાલની ચર્ચામાં આવ્યું હતું કે ભેદજ્ઞાન તો સ્વભાવ અને રાગ વચ્ચે કરવાનું પણ દ્રવ્ય અને પર્યાય વચ્ચે નહીં? સમયસાર ગાથા ૩૮માં આવે છે ‘નવ તત્ત્વથી અત્યંત જુદો હોવાથી અત્યંત શુદ્ધ છે’ તો તેમાં તો સંવર-નિર્જરા-મોક્ષ આવી ગયા, તથા દ્રવ્યદ્રષ્ટિ કરવી અને પર્યાયદ્રષ્ટિ છોડવી તેમાં પણ દ્રવ્ય અને પર્યાય વચ્ચે ભેદજ્ઞાન આવ્યું વળી ધ્રુવ અને ઉત્પાદ તથા નિષ્ક્રિય અને સક્રિય ભાવમાં આ બધામાં દ્રવ્ય અને પર્યાય વચ્ચે તફાવત પાડવો, તો પછી રાગ અને સ્વભાવ વચ્ચેના ભેદજ્ઞાનને પ્રાધાન્ય કેમ આપવામાં આવે છે ? 9:40 Play गईकालनी चर्चामां आव्युं हतुं के भेदज्ञान तो स्वभाव अने राग वच्चे करवानुं पण द्रव्य अने पर्याय वच्चे नहीं? समयसार गाथा ३८मां आवे छे ‘नव तत्त्वथी अत्यंत जुदो होवाथी अत्यंत शुद्ध छे’ तो तेमां तो संवर-निर्जरा-मोक्ष आवी गया, तथा द्रव्यद्रष्टि करवी अने पर्यायद्रष्टि छोडवी तेमां पण द्रव्य अने पर्याय वच्चे भेदज्ञान आव्युं वळी ध्रुव अने उत्पाद तथा निष्क्रिय अने सक्रिय भावमां आ बधामां द्रव्य अने पर्याय वच्चे तफावत पाडवो, तो पछी राग अने स्वभाव वच्चेना भेदज्ञानने प्राधान्य केम आपवामां आवे छे ? 9:40 Play
આત્મા જ્ઞાન સ્વરૂપ છે તેનું લક્ષણ જ્ઞાન છે અને આત્મા અનુભૂતિમાત્ર છે તેમાં વેદન લક્ષણથી ઓળખાણ કરાવી એેમાં કઈ પદ્ધતિ સરળ છે? 17:25 Play आत्मा ज्ञान स्वरूप छे तेनुं लक्षण ज्ञान छे अने आत्मा अनुभूतिमात्र छे तेमां वेदन लक्षणथी ओळखाण करावी एेमां कई पद्धति सरळ छे? 17:25 Play
समाधानः- आंशिक आचरण पहले नहीं होता है। पहले श्रद्धान-ज्ञान हो तो ही आचरण होता है। तो ही आचरण यथार्थ होता है।
मुमुक्षुः- श्रद्धान-ज्ञान पूर्वक।
समाधानः- श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक आचरण यथार्थ होता है। आंशिक आचरण होता है।
मुमुक्षुः- श्रद्धाकी प्रधानता, ऐसा? जैनदर्शनमें श्रद्धान मुख्य तत्त्व है।
समाधानः- श्रद्धानकी प्रधानता है।
मुमुक्षुः- भले ज्ञान द्वारा श्रद्धान होता है।
समाधानः- ज्ञान बीचमें आता है। बीचमें आता है, इसलिये प्रथम ज्ञान करना, ऐसा आता है। श्रद्धा करता है, उसमें ज्ञान बीचमें आता है। अतः प्रथम ज्ञान करना, ऐसा कहनेमें आये। परन्तु श्रद्धा यथार्थ हो तो ही मुक्ति मार्गका प्रारंभ होता है।
मुमुक्षुः- ज्ञान करना, वह भी समकिती-ज्ञानीके समीप रहकर यथार्थ ज्ञान होसके। धर्मात्माका योग हो तो ही उसको उस जातके संस्कार दृढ हो सके।
समाधानः- गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उस मार्गको स्वयं ग्रहण करे। गुरुदेवकाआशय समझे, उस आशयको ग्रहण करे, वैसी स्वयं तैयारी करे तो उसे मार्ग प्रगट होता है। उसकी समीपता अर्थात समीपता यानी अंतरमें उनकी समीपताको ग्रहण करनी। ऐसा अर्थ है।
मुमुक्षुः- भावकी निकटता।
समाधानः- हाँ, भाव-से निकटता ग्रहण करनी। अनादि कालसे देव-गुरु सच्चे नहीं मिले हैं। इसलिये उसे यथार्थ ज्ञान नहीं हुआ है। परन्तु उपादान तैयार हो तो निमित्त मौजूद होता ही है।
मुमुक्षुः- निमित्तको खोजना, ऐसा नहीं?
समाधानः- निमित्त उसे प्राप्त हो ही जाता है, उनका सान्निध्य प्राप्त हो ही जाता है। समीपता यानी उनका सान्निध्य, समीपता प्राप्त हो जाती है। मुमुक्षुको ऐसे भाव आये बिना रहते ही नहीं। देव-गुरु-शास्त्रकी समीपता कैसे प्राप्त हो? उनका सान्निध्य