३२८ कैसे प्राप्त हो? मेरा पुरुषार्थ कैसे हो? मुझे मार्ग कैसे ग्रहण हो? उनका सान्निध्य तो, निश्चय और व्यवहार दोनों सान्निध्यकी उसे भावना होती ही है।
मुमुक्षुः- व्यवहार भी बीचमें आवश्यक है सही।
समाधानः- हाँ, व्यवहार बीचमें आता है। उसे भावना होती है। फिर बाहर- से योग कितना बने, वह अलग बात है। परन्तु उसे भावना होती है। सान्निध्यकी, समीपताकी सब भावना होती है।
मुमुक्षुः- रागकी भूमिकामें ऐसे ही भाव आये।
समाधानः- ऐसे भाव आये। मुुमुक्षुकी भूमिकामें ऐसे भाव आये। सम्यग्दर्शन होनेके बाद मुक्तिका मार्ग प्रारंभ हो तो भी, चारित्र दशा हो तो भी देव-गुरु-शास्त्रके शुभ विकल्प तो साथमें होते ही हैं। जबतक वीतराग दशा नहीं हुयी है तबतक। मुमुक्षुको तो ऐसा होता है कि देव-गुरु-शास्त्रकी समीपता हो, उनका श्रवण, मनन आदिकी भावना होती है। परन्तु सम्यग्दृष्टिको, चारित्रवान मुनिको सबको देव-गुरु-शास्त्र तरफकी शुभभावना आये बिना नहीं रहती। बीचमें साथमें होता है। अणुव्रत, महाव्रतके शुभ परिणाम आते हैं। साथमें देव-गुरु-शास्त्रके शुभ परिणाम आते हैं।
मुमुक्षुः- भावनका अर्थ आपने यह किया कि ऐसे विकल्प आते हैं।
समाधानः- हाँ, ऐसे विकल्प आते हैं। स्वयं आगे जाय, वहाँ देव-गुरु-शास्त्र मुझे सान्निध्यतामें हो, मुझे उनकी समीपता हो, ऐसी भावना उसे आये बिना नहीं रहती। बाहरका योग कितना बने वह अलग बात है, लेकिन उसकी भावना ऐसी होती है।
समाधानः- ...देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, अन्दर शुद्धात्मा, मेरा चैतन्य स्वरूप कैसा है, उसकी पहचान करनी। गुरुदेव बारंबार वही कहते थे। गुरुदेवके प्रवचनमें तो गुरुदेवने बहुत मार्ग बताया है, वाणी बरसायी है। वह करना है। स्वानुभूतिका मार्ग गुरुदेवने बताया। अंतरमें स्वानुभूति होती है, बाहरमें कहीं नहीं है। बाहर-से कुछ नहीं मिलता, अंतरमें है, सब आत्मामें भरा है उसमें-से प्रगट होता है।
अनन्त काल-से जन्म-मरण करते-करते मनुष्यभव मिला। इस मनुष्य भवमें ऐसे गुरुदेव मिले, उन्होंने मार्ग बताया तो वह एक ही करने जैसा है। आत्म स्वरूपकी पहचान कैसे हो? वह।
समाधानः- ...लेकिन वह व्यवहार है। वास्तविक रूपसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राणि मोक्षमार्गः। सम्यग्दर्शन-से शुरूआत होती है।
मुमुक्षुः- वहाँ तकका जो ज्ञान है, वह विकल्पवाला कहा जाय, व्यवहारवाला कहा जाय। प्रयोजनभूत वस्तु तबतक प्राप्त नहीं होती, श्रद्धा होनेके बाद ही प्राप्त होती है।
समाधानः- मूल अपनी परिणति, भेदज्ञानकी धारा, निर्विकल्प स्वानुभूति सम्यग्दर्शन