३३० चमक होती है, अनेक प्रकारसे जो चमक होती है, वैसे उसे पारिणामिकभावकी हानि- वृद्धि कहते हैैं। उसकी वृद्धि, वस्तु स्थिति-से वृद्धि, वीतरागताकी वृद्धि, केवलज्ञानकी वृद्धि नहीं कह सकते।
मुमुक्षुः- .. परन्तु पारिणामिकभावकी दृष्टि-से अगुरुलघुत्वकी..
समाधानः- अगुरुलघुका स्वभाव ही ऐसा है। पानीमें जैसेे तरंग उठते हैं, वैसे उसे पारिणामिकभाव परिणमता रहता है। हानि-वृद्धि...
मुमुक्षुः- वह तो उस भावका ही है न?
समाधानः- पारिणामिकभावका ही है। वृद्धि-हानि नहीं कह सकते, पूर्ण हो गया। एकरूप परिणमन रहता है। उसे वृद्धि-हानि नहीं कहते। ... वृद्धि होती है। साधक सीढी चढता है। पूर्ण वीतरागता हो, केवलज्ञान हो तो कृतकृत्य हो गया। जो करना था वह कर लिया, अब कुछ करना बाकी नहीं रहा। पुरुषार्थकी पूर्णता हो गयी। करना कुछ नहीं है। सहज स्वभावरूप द्रव्य परिणमता रहता है। फिर करना कुछ नहीं है। करना कुछ नहीं है, वह तो निज स्वभावरूप परिणमता रहता है।
मुमुक्षुः- कलकी चर्चामें ऐसा आया कि भेदज्ञान राग और स्वभावके बीच करना है। द्रव्य और पर्यायके बीच नहीं। समयसार गाथा-३८में ऐसा आता है कि नौ तत्त्व- से आत्मा अत्यंत भिन्न होने-से शुद्ध है, ऐसा कहा। तो उसमें तो संवर, निर्जरा और मोक्ष भी आ गये। द्रव्यदृष्टि करनी और पर्यायदृष्टि छोडनी, उसमें भी द्रव्य और पर्यायके बीच भेदज्ञानका प्रसंग आया। वैसे ही ध्रुव और उत्पाद रूप चलित भाव, निष्क्रिय और सक्रिय भाव। इन सबमें द्रव्य और पर्यायके बीच तफावत करना पडता है। तो राग और स्वभावके बीचके भेदज्ञानको क्यों प्राधान्यता दी जाती है?
समाधानः- राग और स्वभाव दो हैं (उसमें) विभाव है और यह स्वभाव है, इसलिये उसकी प्राधान्यता है। गुण-पर्यायका भेद भी दृष्टिकी अपेक्षा-से कहनेमें आता है। सर्व अपेक्षा-से (नहीं)। गुण और पर्याय जो है वह अंश-अंश है। लेकिन वह अंश है वह द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से... जैसे साधकदशा। जो-जो भेद पडे गुणस्थान,... उन सब भागको द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से सबको गौण करके ... द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा- से। कारण आश्रय तो द्रव्यका लेना है। पर्यायका आश्रय या गुणका आश्रय नहीं लेना है। कारण कि उन सबको ... आता है। लेकिन वह भिन्न ऐसा नहीं है कि जैसा राग-से भिन्न है, वैसा यह भिन्न नहीं है। भिन्नता-भिन्नतामें फर्क है। इसलिये उस अपेक्षा- से कहा था कि राग-से भेदज्ञान (करना है)। क्योंकि स्वभाव और विभावका भेदज्ञान है। यह भेदज्ञान है, वह अपेक्षा अलग है। उसमें आश्रय चैतन्य पूर्ण ऐश्वर्यशाली है उसका आश्रय लेना है। पर्याय और गुण एक अंश है। उसका आश्रय नहीं लेना है।