Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1564 of 1906

 

ट्रेक-

२३८

३३१

द्रव्य पर दृष्टि करने-से उसका आश्रय होता है और गुण एवं पर्याय गौण हो जाते हैं। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से। इसलिये उसमें सब साधक दशा और सब उसमें गौण हो जाता है। जैसे एक राजा पूर्ण शक्तिशाली राजा हो।.. कोई अपेक्षा-से भिन्न है। राजा पूर्ण ऐश्वर्यशाली है, यह तो एक अंश है। परन्तु जैसा उसके दुश्मन-से भिन्न पडता है, उस तरह उसके रिश्तेदारों-से उस जातकी भिन्नता नहीं है। भले राजा और प्रधान आदि सब भिन्न वस्तुएँ ही हैं। परन्तु वह भिन्न और उसके दुश्मन-से भिन्नता, उस भेदज्ञानमें फर्क है। इसलिये दृष्टिके बलकी अपेक्षा-से...

दृष्टि सब भिन्न करती है। मैं कृतकृत्य पूर्ण हूँ। वह साधकदशाको भी गौण करती है कि मैं पूर्ण हूँ। कृतकृत्य हूँ। मेरे द्रव्यमें कुछ भी अशुद्धता नहीं हुयी है। मैं तो पूर्ण हूँ और यह विभाव मुझ-से अत्यंत भिन्न है। ऐसे भिन्नता करता है। बीचमें जो साधकदशा, अपूर्ण पर्याय, पूर्ण पर्याय सबको गौण करती है। तो भी ज्ञान है वह उसे लक्ष्यमें रखता है कि ये गुण और पर्याय है, वह चैतन्यके लक्षण हैं। चैतन्यकी अवस्थाएँ हैं। उसकी शुद्ध पर्याय उसे वेदनमें आती है और ज्ञान उसका विवेक करता है। उस अपेक्षा-से भेदज्ञान राग-से करना है। क्योंकि गुण और पर्यायका भेदज्ञान वह भेद ऐसा है कि दृष्टिका आश्रय द्रव्य पर जाता है, इसलिये उन सबका भेद करना है।

परन्तु जैसा भेद राग-से करना है, वैसा भेद गुण-पर्यायका, वैसा भेद नहीं है। भेद-भेदमें फर्क है। इसलिये राग-से भेदज्ञान करना है। वह भेद है, परन्तु भेद-भेदमें फर्क है। उसका विवेक करना है। चैतन्यके गुण हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र वह सब एक- एक अंश हैं। चैतन्य तो अखण्ड पूर्ण शक्तिवान है। एक-एक अंश वैसे नहीं है, अतः उसका आश्रय नहीं करना है। वह अंश है। इसलिये उन सबको गौण करना है। और दृष्टि तो उन सबको निकाल देती है। निमित्तकी अपेक्षा-से अपूर्ण-पूर्ण पर्याय हुयी, इसलिये दृष्टि सबको भिन्न करती है। मैं तो एक पूर्ण हूँ, कृतकृत्य हूँ। इस तरह दृष्टिके बलमें सब निकल जाता है। मैं पूर्ण हूँ।

लेकिन यदि पूर्ण ही हो तो बीचमें साधकदशा नहीं रहती। उसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि सब अवस्थाएँ तो होती हैं। अतः ज्ञान उसका विवेक करता है कि कोई अपेक्षासे ये गुण हैं, वह चैतन्यके हैं। चारित्रकी पर्याय प्रगट होती है वह चैतन्यमें (प्रगट होती है)। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब चैतन्यमें प्रगट होती है। परन्तु द्रव्य पर दृष्टि करने-से प्रगट होती है। इसलिये मैं नौ तत्त्वकी परिपाटी छोडकर मुझे एक आत्मा प्राप्त होओ। नौ तत्त्वकी परिपाटी पर दृष्टि नहीं रखनी है, दृष्टि एक आत्मा पर रखनी है। आत्मा पर दृष्टि करने-से सब निर्मल पर्याय प्रगट होती है। परन्तु उसका आश्रय नहीं लेना है। परन्तु वह पर्याय, जैसे विभाव भिन्न है, वैसे पर्याय उस तरह (भिन्न)