Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 239.

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ट्रेक-२३९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- वचनामृत बोल-४०१में विभावभावमें परदेसत्वकी अनुभूति व्यक्त की है और अनन्त गुण-परिवार हमारा स्वदेश है, उस और हम जा रहे हैं। इस प्रकार एक ही द्रव्यमें एक स्थान-से दूसरे स्थानकी गतिक्रिया, भिन्न-भिन्न अनुभव हो, ऐसा अनुभव किस तरह होता है?

समाधानः- वह तो एक भावनाकी बात है। विभाव मेरा देश नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि है। चैतन्यदेश हमारा है। परन्तु अभी अधूरी पर्याय है। इसलिये यह विभाव हमारा देश नहीं है। इस देशमें हम कहाँ आ पडे? देश तो हमारा चैतन्य स्वदेश हमारा है। ये तो विभाव तो परदेश है, यहाँ कहाँ आ गये? वह सब तो विभाव-विभाव (है), यहाँ हमारा कोई नहीं है। हमारा सब हमारे स्वदेशमें हमारे गुण हैं वह हमारे हैं।

दृष्टि भले अखण्ड पर है, परन्तु उसके ज्ञानमें उसकी भावनामें आगे बढनेके लिये उसकी चारित्रकी पर्यायमें आगे बढनेके लिये अनेक जातकी भावना आती है। ये सब तो परदेश है, मेरा स्वदेश तो मेरे गुण हैं, वह मेरा स्वदेश है। स्वदेशकी ओर, हमारे पुरुषार्थकी गति उस तरफ हो। हमें इस विभावकी ओर नहीं जाना है। दृष्टि अपेक्षा- से तो भले स्वदेशको ग्रहण किया। परिणति अमुक प्रकार-से स्व तरफ गयी हो, परन्तु विशेष-विशेष हम स्वदेशमें जायें, हमारे पुरुषार्थकी गति स्वदेशमें जाय, ये विभाव हमारा देश नहीं है। ऐसा भावनामें आ सकता है।

साधकको सब जातकी भावना आती है। वहाँ दृष्टि रखे तो विभाव तरफ जाने- से वहाँ हमारा कोई दिखाई नहीं देता। चैतन्यके स्वदेशमें जाते हैं, वह सब हमारे हैं। ये सब तो विभाव है। विभाव परभाव हैं। ऐसा भावनामें आ सकता है।

मुमुक्षुः- तो वहाँ सब हमारा है, परिचित है, हमेशा रहनेवावले हैं, क्या लगता होगा?

समाधानः- स्वयंने जो स्वदेश देखा है, जो देखा है वह कह सकते हैं कि ये सब हमारे हैैं। ये गुण हमारे साथ रहनेवाले शाश्वत हैं, वह सब हमारे हैं। अनन्त गुणों-से भरपूर, जिसमें अनन्त शुद्धकी पर्याय-शुद्धात्माकी प्रगट होती हैं, जो अनन्त गुणों-