વચનામૃત ૪૦૧ બોલમાં ‘વિભાવભાવમાં પરદેશપણાની અનુભૂતિ વ્યકત કરી અને અનંતગુણ પરિવાર અમારો સ્વદેશ છે, તે તરફ જઈ રહ્યા છીએ આમ એક જ દ્રવ્યમાં એક જ સ્થાનેથી બીજા સ્થાને ગતિક્રિયા અને જુદા જુદા વિભાગ હોય તેવો અનુભવ કેવી રીતે છે? 0 Play वचनामृत ४०१ बोलमां ‘विभावभावमां परदेशपणानी अनुभूति व्यकत करी अने अनंतगुण परिवार अमारो स्वदेश छे, ते तरफ जई रह्या छीए आम एक ज द्रव्यमां एक ज स्थानेथी बीजा स्थाने गतिक्रिया अने जुदा जुदा विभाग होय तेवो अनुभव केवी रीते छे? 0 Play
ભેદજ્ઞાનમાં તો (ભેદ વર્તે છે) અને સ્વસંવેદનમાં સ્વભાવ સાથે અભેદ જ્ઞાન વર્તે છે તો પછી ભેદજ્ઞાનની વ્યવસ્થા શું?પર્યાયમાં દ્રવ્યપણું નથી અને દ્રવ્યમાં–ધ્રૌવ્યમાં પર્યાયપણું નથી તો પછી પર્યાય દ્રવ્ય સાથે એકત્વનો અનુભવ કેવી રીતે કરી શકે? 3:25 Play भेदज्ञानमां तो (भेद वर्ते छे) अने स्वसंवेदनमां स्वभाव साथे अभेद ज्ञान वर्ते छे तो पछी भेदज्ञाननी व्यवस्था शुं?पर्यायमां द्रव्यपणुं नथी अने द्रव्यमां–ध्रौव्यमां पर्यायपणुं नथी तो पछी पर्याय द्रव्य साथे एकत्वनो अनुभव केवी रीते करी शके? 3:25 Play
પહેલા નિરપેક્ષથી જાણવું જોઈએ પછી સાપેક્ષતા લગાવવી જોઈએ. ધ્રુવ ધ્રુવથી છે પર્યાયથી નથી અને પર્યાય પર્યાયથી છે ધ્રુવથી નથી એમ નિરપેક્ષ લઈને પછી દ્રવ્યની પર્યાય છે અને પર્યાય દ્રવ્યથી છે એમ સાપેક્ષ લેવામાં શો દોષ આવે ? 7:05 Play पहेला निरपेक्षथी जाणवुं जोईए पछी सापेक्षता लगाववी जोईए. ध्रुव ध्रुवथी छे पर्यायथी नथी अने पर्याय पर्यायथी छे ध्रुवथी नथी एम निरपेक्ष लईने पछी द्रव्यनी पर्याय छे अने पर्याय द्रव्यथी छे एम सापेक्ष लेवामां शो दोष आवे ? 7:05 Play
જીવને રાગના પરિણામનો પરિચય છે. જ્ઞાન આછું આછું ખ્યાલમાં આવે છે તે પણ પર વિષય હોય તે રીતે. આ સ્થિતિમાં આગળ કઈ રીતે વધવું? તે માટે માર્ગદર્શન આપવા કૃપા કરશો. 8:40 Play जीवने रागना परिणामनो परिचय छे. ज्ञान आछुं आछुं ख्यालमां आवे छे ते पण पर विषय होय ते रीते. आ स्थितिमां आगळ कई रीते वधवुं? ते माटे मार्गदर्शन आपवा कृपा करशो. 8:40 Play
જ્ઞાનપર્યાય પરથી જ્ઞાનસ્વભાવનો ખ્યાલ કેવી રીતે આવી જાય? 10:25 Play ज्ञानपर्याय परथी ज्ञानस्वभावनो ख्याल केवी रीते आवी जाय? 10:25 Play
પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રીએ ચારે બાજુથી બધું સમજાવ્યું છે તે વિષે... 12:20 Play पूज्य गुरुदेवश्रीए चारे बाजुथी बधुं समजाव्युं छे ते विषे... 12:20 Play
આત્મા બિના ચૈન નહીં પડે વહ પાત્રતા હૈ ઉસકો આત્મા પ્રાપ્ત હોતા હૈ? 13:05 Play आत्मा बिना चैन नहीं पडे वह पात्रता है उसको आत्मा प्राप्त होता है? 13:05 Play
નિર્વિકલ્પદશામેં ક્યા આતા હૈ? શૂન્ય જૈસા હો જાતા હૈ? 17:20 Play निर्विकल्पदशामें क्या आता है? शून्य जैसा हो जाता है? 17:20 Play
સ્વાનુભવ તો પર્યાયમેં હોતા હૈ વહ તો એક સમયકી હૈ ઉસમેં સમ્પૂર્ણ આત્મા કૈસે આ જાતા હૈ? 18:40 Play स्वानुभव तो पर्यायमें होता है वह तो एक समयकी है उसमें सम्पूर्ण आत्मा कैसे आ जाता है? 18:40 Play
અનુભવ હોનેસે પહલેકી દશા કિસ પ્રકારકી હોતી હૈ? 20:20 Play अनुभव होनेसे पहलेकी दशा किस प्रकारकी होती है? 20:20 Play
मुमुक्षुः- वचनामृत बोल-४०१में विभावभावमें परदेसत्वकी अनुभूति व्यक्त की हैऔर अनन्त गुण-परिवार हमारा स्वदेश है, उस और हम जा रहे हैं। इस प्रकार एक ही द्रव्यमें एक स्थान-से दूसरे स्थानकी गतिक्रिया, भिन्न-भिन्न अनुभव हो, ऐसा अनुभव किस तरह होता है?
समाधानः- वह तो एक भावनाकी बात है। विभाव मेरा देश नहीं है। द्रव्यपर दृष्टि है। चैतन्यदेश हमारा है। परन्तु अभी अधूरी पर्याय है। इसलिये यह विभाव हमारा देश नहीं है। इस देशमें हम कहाँ आ पडे? देश तो हमारा चैतन्य स्वदेश हमारा है। ये तो विभाव तो परदेश है, यहाँ कहाँ आ गये? वह सब तो विभाव-विभाव (है), यहाँ हमारा कोई नहीं है। हमारा सब हमारे स्वदेशमें हमारे गुण हैं वह हमारे हैं।
दृष्टि भले अखण्ड पर है, परन्तु उसके ज्ञानमें उसकी भावनामें आगे बढनेके लियेउसकी चारित्रकी पर्यायमें आगे बढनेके लिये अनेक जातकी भावना आती है। ये सब तो परदेश है, मेरा स्वदेश तो मेरे गुण हैं, वह मेरा स्वदेश है। स्वदेशकी ओर, हमारे पुरुषार्थकी गति उस तरफ हो। हमें इस विभावकी ओर नहीं जाना है। दृष्टि अपेक्षा- से तो भले स्वदेशको ग्रहण किया। परिणति अमुक प्रकार-से स्व तरफ गयी हो, परन्तु विशेष-विशेष हम स्वदेशमें जायें, हमारे पुरुषार्थकी गति स्वदेशमें जाय, ये विभाव हमारा देश नहीं है। ऐसा भावनामें आ सकता है।
साधकको सब जातकी भावना आती है। वहाँ दृष्टि रखे तो विभाव तरफ जाने-से वहाँ हमारा कोई दिखाई नहीं देता। चैतन्यके स्वदेशमें जाते हैं, वह सब हमारे हैं। ये सब तो विभाव है। विभाव परभाव हैं। ऐसा भावनामें आ सकता है।
मुमुक्षुः- तो वहाँ सब हमारा है, परिचित है, हमेशा रहनेवावले हैं, क्या लगताहोगा?
समाधानः- स्वयंने जो स्वदेश देखा है, जो देखा है वह कह सकते हैं किये सब हमारे हैैं। ये गुण हमारे साथ रहनेवाले शाश्वत हैं, वह सब हमारे हैं। अनन्त गुणों-से भरपूर, जिसमें अनन्त शुद्धकी पर्याय-शुद्धात्माकी प्रगट होती हैं, जो अनन्त गुणों-