Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

३३४ से भरपूर ऐसा चैतन्यद्रव्य, उसकी स्वानुभूति होती है तो उसे ऐसा लगता है कि ये सब हमारे हैं। द्रव्य, अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि है, तो भी ये सब गुण उसके ज्ञानमें वर्तता है कि ये सब हमारा है, ये कोई हमारा नहीं है। उसकी भावनामें वह सब आता है।

दृष्टि, ज्ञान, चारित्र, अनेक प्रकारकी अपेक्षाएँ साध्य-साधक भावमें होती है। अनेकान्तमयी मूर्ति नित्यमेव प्रकाशताम। अनेकान्त स्वभाव है। एक तरफ-से देखो तो क्लेश-कालिमा दिखे। एक तरफ-से शुद्धात्मा दिखे, एक तरफ साधकदशा हो। अनेक जातकी पर्याय दिखे। अतः वह अनेकान्त स्वरूप है। अनेक अपेक्षाएँ साधक दशामेंं होती हैं। और पूर्ण हो तो भी उसमें अनन्त गुण और अनन्त पर्यायें,...

मुमुक्षुः- .. भेदज्ञान वर्तता है और संवेदनमें तो स्वभावके साथ अभेद ज्ञान होता है, तो भेदज्ञानकी व्यवस्था क्या?

समाधानः- विकल्प है वह तो अभ्यासरूप भेदज्ञान है और स्वानुभूतिमें भेदज्ञानका विकल्प नहीं है, निर्विकल्प दशा है। बीचकी साधकदशामें भेदज्ञानकी धारा, वह उसे सहज परिणतिरूप होती है। उसे विकल्परूप नहीं है। उसे, मैं भेदज्ञान करुँ, ऐसा नहीं है। परन्तु उसे सहज ज्ञायककी धारा और उदयकी धारा, दोनों भिन्न धारा साधकदशामें वर्तती है। उदयधारा और ज्ञानधारा-ज्ञायककी धारा। दोनों जातकी भेदज्ञानकी धारा उसे वर्तती ही है।

शास्त्रमें आता है कि भेदज्ञान तबतक अविच्छिन्न धारा-से भाना कि जबतक ज्ञान ज्ञानमें स्थिर न हो जाय। इसलिये अमुक अंशमें स्थिर न हो जाय और पूर्ण स्थिर न हो जाय, वीतराग दशा न हो तबतक भेदज्ञान अविच्छिन्न धारा-से भाना। उसमें त्रुटक न पडे ऐसा। ऐसी सहज भेदज्ञानकी धारा, सम्यग्दृष्टिको सहज भेदज्ञानकी धारा होती है। ज्ञायककी ज्ञायकधारा और विभावकी विभावधारा। अल्प अस्थिरता होती है वह विभावधारा है। और ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमता है, वह विकल्परूप नहीं है, परन्तु सहज है। जैसे एकत्वबुद्धिकी धारा सहज अनादि कालसे चल रही है, उसमें उसे कुछ याद नहीं करना पडता या उसे धोखना नहीं पडता, एकत्वबुद्धिकी धारा (वर्तती है)। वैसे उसे भेदज्ञानकी धारा ऐसी सहज हो गयी है कि ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमता रहता है और विभाव विभावरूप। उसकी अल्प अस्थिरता है इसलिये विभावधारा और ज्ञायकधारा दोनों धारा रहती है। फिर वीतरागदशा होती है, तब दो धारा नहीं रहती। स्वानुभूतिमें दो धारा नहीं होती।

मुमुक्षुः- दोनों धारा भिन्न-भिन्न परिणमती है, वही भेदज्ञानका अस्तित्व..

समाधानः- वह भेदज्ञान है।

मुमुक्षुः- पर्यायमें द्रव्यत्व नहीं है और द्रव्यमें अर्थात ध्रुवमें पर्यायत्व नहीं है।