આપકો આત્માનુભૂતિ પ્રગટ હૈ, હમકો આત્માનુભૂતિ કરનેકી સરલ રીતિ ક્યા હૈ વહ દયા કરકે બતાઈયે 0 Play आपको आत्मानुभूति प्रगट है, हमको आत्मानुभूति करनेकी सरल रीति क्या है वह दया करके बताईये 0 Play
વચનામૃતમેં આતા હૈ કિ ‘રુચિ અનુયાયી વીર્ય’ હમ લોગ રુચિ લેકર યહાઁ આતે હૈ ફિર ભી હમારા કાર્ય ક્યોં નહીં હોતા? 1:55 Play वचनामृतमें आता है कि ‘रुचि अनुयायी वीर्य’ हम लोग रुचि लेकर यहाँ आते है फ़िर भी हमारा कार्य क्यों नहीं होता? 1:55 Play
વચનામૃતમેં આયા હૈ કિ જ્ઞાયકકે લક્ષસે તમામ કાર્ય કરના, ખાતે પીતે, ઉઠતે-બૈઠતે ઉસકો વિશેષ સ્પષ્ટ કરના.... 3:20 Play वचनामृतमें आया है कि ज्ञायकके लक्षसे तमाम कार्य करना, खाते पीते, उठते-बैठते उसको विशेष स्पष्ट करना.... 3:20 Play
ઇન્દ્રિયજ્ઞાન આત્માનુભૂતિમેં કિસપ્રકાર બાધક હૈ? 6:40 Play इन्द्रियज्ञान आत्मानुभूतिमें किसप्रकार बाधक है? 6:40 Play
પૂજ્ય બહિનશ્રી! એકત્વબુદ્ધિ તો હમ કરના નહીં ચાહતે ફિર ભી ક્યોં હો જાતી હૈ? 8:35 Play पूज्य बहिनश्री! एकत्वबुद्धि तो हम करना नहीं चाहते फ़िर भी क्यों हो जाती है? 8:35 Play
લગની-ભાવના-પુરુષાર્થ કરે તો પ્રગટ થયા વિના રહે નહીં તે વિષે.... 11:10 Play लगनी-भावना-पुरुषार्थ करे तो प्रगट थया विना रहे नहीं ते विषे.... 11:10 Play
ઉપયોગ દ્વારા તો જ્ઞાન-દર્શનકી પ્રતીતિ હોતી હૈ લેકિન સુખકી પ્રતીતિ કૈસે હોતી હૈ? (ઉત્તર પરસે) 12:35 Play उपयोग द्वारा तो ज्ञान-दर्शनकी प्रतीति होती है लेकिन सुखकी प्रतीति कैसे होती है? (उत्तर परसे) 12:35 Play
બાહ્યમેં આકુલતા લગે તો વહાઁસે હટે તબ મુઝે સુખ કહાઁસે મિલેગા? ઐસી પ્રક્રિયાકી શુરૂઆત હોતી હૈ? 15:35 Play बाह्यमें आकुलता लगे तो वहाँसे हटे तब मुझे सुख कहाँसे मिलेगा? ऐसी प्रक्रियाकी शुरूआत होती है? 15:35 Play
પુરુષાર્થ પ્રગટ કરવા માટે પહેલા પ્રતીતિ આવવી જોઈએ• 17:50 Play पुरुषार्थ प्रगट करवा माटे पहेला प्रतीति आववी जोईए• 17:50 Play
मुमुक्षुः- आपको आत्मानुभूति भी है, थोडा-सा आत्मानुभूति करनेका सरलतमरीति क्या है? हम पर दया करके (बताईये)।
समाधानः- पहले मैं आत्मा चैतन्यतत्त्व हूँ, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। विभावआकुलतास्वरूप है, उसमें कहीं सुख नहीं है। उसकी सुखबुद्धि टूटनी चाहिये। परमें लक्ष्य जाता है, परसे एकत्वबुद्धि होती, परमें कर्ताबुद्धि होती है, ये सब तोडकर आत्मामें ज्ञायकमें, मैं ज्ञायक ही हूँ, ज्ञायकमें ही सब है, सबकुछ ज्ञायकमें है, बाहरमें नहीं है, ऐसा भेदज्ञान करना।
इसलिये बारंबार मैं भिन्न हूँ, मैं चैतन्यतत्त्त्त्व हूँ, विभाव मैं नहीं हूँ। चैतन्यको लक्षणसेपहचान लेना कि ये चैतन्यलक्षण मेरा है, रागका लक्षण भिन्न है। उसका लक्षण भिन्न है। मैं निराकूल स्वभाव हूँ, ये आकुललक्षण है। उसको भिन्न-भिन्न करके चैतन्यमें दृष्टि करना। उसका क्षण-क्षणमें भेदज्ञान करना कि मैं चैतन्य अनादिअनन्त हूँ। चैतन्यको ग्रहण करना और पर तरफ-से दृष्टि उठा लेना। ऐसा बारंबार करना। ऐसी दृष्टि स्थिर न हो तो भी बारंबार उसको ग्रहण करना चाहिये कि मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, ऐसा बारंबार भीतरमें-से भेदज्ञान करना चाहिये। तो विकल्प टूटते हैं और स्वानुभूति होती है।
पहले तो चैतन्यको ग्रहण करना चाहिये। उसे लक्षण-से पहचानना चाहिये। जन्म-