Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

मरण करते-करते बाहर क्रियामें रुक जाता है, कहाँ-कहाँ रुक जाता है। मुक्तिका मार्ग तो भीतरमें है और स्वानुभूति आनन्द आत्मामें-से प्रगट होता है, बाहर-से तो आता नहीं। इसलिये भीतरमें जाता है तो भीतरमें-से चैतन्यदेव प्रकाशमान होता है, वह बाहर- से नहीं होता है।

मुमुक्षुः- मातेश्वरी! ये वचनामृतमें आया है कि रुचि अनुयायी वीर्य है और हम सब इसीलिये यहाँ आये हैं और आते रहते हैं, फिर भी हमारा सही दिशामें ... क्यों नहीं चलती है?

समाधानः- यहाँ रुचि होती है, लेकिन पुरुषार्थ नहीं होता है। रुचि तो होती है, लेकिन उस जातका पुरुषार्थ होना चाहिये। पुरुषार्थ मन्द है। रुचि, आत्माकी रुचि करना। जो आत्मा है उसको पहचानना। उसके पीछे प्रयत्न, बारंबार प्रयत्न करना चाहिये। रुचिकी तीव्रता करनी चाहिये। कहीं चैन न पडे, मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, कहीं चैन न पडे, विभावमें चैन नहीं पडना चाहिये और भीतरमें चैतन्यमें बारंबार दृष्टि, उपयोग बारंबार उस तरफ जाना चाहिये। तो पुरुषार्थ करने-से प्रगट होता है।

जैसे स्फटिक निर्मल है, जल निर्मल है, वैसे आत्मा निर्मल ही है। पर तरफ दृष्टि, उपयोग जाता है तो उसमें मलिनता दिखनेमें आती है। भीतरमें तो मलिनता है नहीं, तो भीतरमें जो जाता है कि मैं शुद्ध हूँ, तो शुद्धात्मा तरफ जाने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। बाहरमें उपयोग देने-से अशुद्ध पर्याय प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- वचनामृतमें आया है कि ज्ञायकके लक्ष्य-से तमाम लौकिक कार्य करना। खाते-पीते, उठते-बैठते ज्ञायकका लक्ष्य करना। थोडा-सा स्पष्ट कीजिये।

समाधानः- खाते-पीते (हर वक्त) एक ज्ञायकका ही (लक्ष्य रखना)। उसमें एकत्व नहीं होना। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, यह पहले तो अभयासरूप-से होता है। यथार्थ परिणति ज्ञान होनेके बाद ज्ञानीको यथार्थ परिणति होती है। उसको खाते-पीते उसकी भेदज्ञानकी धारा रहती है, मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। पहले तो अभ्यास रहता है खाता- पीते कि मैं ज्ञायक हूँ। ये खानेका स्वभाव मेरा नहीं है, ये शरीर भी मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा तत्त्व नहीं है, मैं तो भिन्न तत्त्व हूँ। और विभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। इसलिये खाते-पीते, चलते-फिरते, सोते सबमें मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा अभ्यास करना चाहिये।

ज्ञानीकी तो ऐसी सहज दशा रहती है। खाते-पीते, सोते, स्वप्नमें ज्ञायक हूँ, ऐसी ज्ञायककी परिणति-भेदज्ञानकी धारा उसको निरंतर चलती रहती है। उसमें त्रुट नहीं पडती। पहले तो उसका अभ्यास होता है कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। ऐसे रटन करने मात्र नहीं परन्तु भीतरमें ऐसी तैयारी होनी चाहिये कि मैं ज्ञायक हूँ।