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ज्ञानमें-ज्ञायकमें सब कुछ है, सर्वस्व ज्ञायकमें है, पर बाहरमें कुछ नहीं है। पहले तो अनुभूति होवे तब उसका वेदन होता है। पहले तो मैं ज्ञायक हूँ, उसका लक्षण पहचानना चाहिये कि जो ज्ञायक जाननेवाला है, वह मैं ही हूँ। ये जो ज्ञानलक्षण है, उसको धरनेवाला ज्ञायक है। ऐसे मूल तत्त्वको ग्रहण करना चाहिये। गुणके पीछे जो गुणी है, उस गुणीको ग्रहण करना चाहिये। मात्र गुण एक लक्षणको पीछानकर गुणीको लक्ष्यमें ले लेना चाहिये कि मैं ज्ञायक हूँ। ऐसे।
एक पर्यायमात्र या बाहरको जानता है इसलिये मैं जाननेवाला नहीं, मैं स्वतः ज्ञायक हूँ, स्वतःसिद्ध ज्ञायक हूँ। ऐसे स्वतःसिद्ध तत्त्वको ग्रहण कर लेना चाहिये। उसको कोई आलम्बन-से ज्ञायक है या जानता है इसलिये ज्ञायक है, ऐसा नहीं है। वह स्वतः जाननेवाला ज्ञायक वही मैं ज्ञायक हूँ।
शास्त्रमें आता है न कि जितना ज्ञानमात्र है उसमें रुचि कर, उसमें संतुष्ट हो, उसमें तुझे सुख और अनुभव प्राप्त होगा। जितना ज्ञान है उतना तू है। जितना ज्ञायक- जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है वही तू है। "इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे।' उसमें प्रीति कर, उसमें रुचि कर, उसमें संतुष्ट हो, उसमें तुझे सुख-अनुपम सुखकी प्राप्ति होगी। ऐसे ज्ञानमात्र-ज्ञायकमात्र आत्मामें संतुष्ट हो। उसके लिये सब विचार, वांचन, ज्ञायकका अभ्यास करनेके लिये है। उसका द्रव्य, उसका गुण, उसकी पर्याय क्या है, वह सब यथार्थ समझमें लेना चाहिये।
मुमुक्षुः- इन्द्रिय ज्ञान आत्मानुभूतिमें किस प्रकार बाधक है, थोडा-सा स्पष्ट कीजिये।
समाधानः- इन्द्रिय ज्ञान तो भीतरमें आत्मानुभवमें साथमेें आता नहीं। अतीन्द्रिय ज्ञान जो ज्ञान-से ज्ञान परिणमता है, वह ज्ञानस्वरूप आत्मा है, वही आत्माका मूल स्वरूप है। मूल स्वरूपको ग्रहण करना चाहिये। बाहर रुकने-से, बाहर रुकने-से तो सब क्षयोपशम ज्ञान है। उसमें इन्द्रियोंका निमित्त होता है। बाहर उपयोग जाता है तो बाधक होता है, परन्तु भीतरमें जो उपयोग होवे, भीतरमें जो परिणति होवे तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है।
अपनी दृष्टिका दोष है कि दृष्टि बाहरमें जाती है, दृष्टि एकत्वबुद्धि करती है तो वह बाधक होती है, एकत्वबुद्धि करने-से। परन्तु अपने स्वरूपमें दृष्टि जाय और स्वरूपमें लीनता होती है तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है। बाहर उपयोग होने-से इन्द्रिय ज्ञान रहता है। एकत्वबुद्धि होने-से वह बाधक होता है। एकत्वबुद्धि टूट जाय तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है। उसमें लीनता होने-से वह आगे बढता है। पहले स्वानुभूति होती है, फिर उसमें लीनता बढते-बढते दशा बढती जाती है तो मुनिओंको तो क्षण-क्षणमें स्वरूप अनुभूति होती है। ऐसे अनुभूति बढते-बढते केवलज्ञान होता है। ऐसे स्वरूपमें