४ लीनता करने-से अतीन्द्रिय ज्ञान बढते जाता है। अतीन्द्रियका अनुभव बढते जाता है। बाहर एकत्वबुद्धि होने-से इन्द्रिय ज्ञान रहता है, भीतरमें उपयोग जाय तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है। एकत्वबुद्धिका दोष है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! ये एकत्वबुद्धि तो परपदाथा-से करना नहीं चाहते, फिर भी लेकिन फिर भी उस तरफलक्ष्य क्यों बार-बार जाता है?
समाधानः- करना नहीं चाहता है तो भी परिणति तो ऐसी अनादि-से हो रही है एकत्वबुद्धि। भावना नहीं है। एकत्वबुद्धि नहीं करना, नहीं करना (ऐसा होता है, लेकिन) भीतरमें हो रही है तो उसको तोड देना चाहिये। विचार करे, सूक्ष्म उपयोग करे, प्रज्ञाछैनी तैयार करके उसको तोड देना चाहिये।
जो विकल्पकी जाल चल रही है, उस विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है। वह एकत्वबुद्धि तोड देनी चाहिये। इच्छा नहीं होवे तो तोड देना चाहिये। सच्ची भावना उसे कहनेमें आती है कि जो उसे तोडनेका प्रयत्न करे। उसको-एकत्वबुद्धि तोडनेका प्रयत्न करना चाहिये। स्वमें एकत्व और पर-से विभक्त। स्वमें एकत्वबुद्धि करना चैतन्यमें और पर-से विभक्त हो जाना। एकत्वबुद्धिका दोष है, मिथ्यात्व, भूल है वह वही है।
स्वमें एकत्वबुद्धि नहीं की और परमें एकत्वबुद्धि की, इस भूलके कारण सब भूल चलती है। सब परिणति विभाव तरफ जाती है। अपनी एकत्वबुद्धिुहुयी तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट हुआ, लीनता प्रगट हुयी, तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र सबकी अपनी ओर परिणति हुयी। पर तरफ दृष्टि है तो दृष्टि भी मिथ्या, ज्ञान भी मिथ्या और चारित्र भी मिथ्या। और अपनी तरफ दृष्टि गयी तो ज्ञान सम्यक हुआ और चारित्र भी सम्यक हुआ। सब सम्यक हुआ।
सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। सर्व गुणोंका अंश सम्यग्दर्शनमें प्रगट हो जाता है। स्वरूप अनुभवमें। और विभावमें है तो सब विभावकी परिणति है। .. बाहरमें मान लिया कि नौ तत्त्वका श्रद्धान करते हैं या छः द्रव्यका श्रद्धान करते हैं, उसमें सम्यग्दर्शन नहीं हो जाता है। वह तो विकल्प मात्र है। भूतार्थ नय-से चैतन्यको ग्रहण करता है तो सम्यग्दर्शन होता है, तो स्वानुभूति होती है। और भेद विकल्पमें रुकने-से कहीं सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। वह तो बीचमें आता है। गुणका भेद विचारमें आते हैं। उसमें रुक जाय तो स्वानुभूति नहीं होती है। विकल्प टूट जाय, उसमें लीनता होवे तब स्वानुभूति होती है। चैतन्यमें लीनता, चैतन्य तरफ दृष्टि (करे) तो स्वानुभूति होती है। ज्ञान सबका होता है। गुणका, पर्यायका, सब ज्ञानमें आता है।
समाधानः- यथार्थ भावना, लगनी और पुरुषार्थ हो तो प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं। देर लगे, लेकिन उस तरफका प्रयत्न हो और वह ऐसे ही पुरुषार्थ चालू