६ तो है नहीं। विश्रांति और आनन्द आत्मामें है।
जो ज्ञानस्वभाव है, जो द्रव्य है वह अनन्त स्वभाव-से भरा हुआ है। ऐसा द्रव्यका स्वभाव पहचानना चाहिये। आनन्द कोई जडमें तो है नहीं। तो आनन्द-आनन्द जो भीतरमें उठता है, वह आनन्द कोई चैतन्यतत्त्वका है, कोई जड पदार्थका तो है नहीं। तो आनन्द अपने स्वभावमें है। क्योंकि स्वानुभूति पहले नहीं होती, उसकी प्रतीत पहले होती है। तो प्रतीत-ऐसा दृढ निश्चय करके अपनी ओर प्रयत्न करना। ऐसी प्रतीत यदि दृढ होवे तो प्रयत्न होता है। रुचि, प्रतीत दृढ होती है तो प्रयत्न अपनी तरफ जाता है। रुचि और प्रतीत दृढ नहीं होती तो प्रयत्न भी नहीं होता।
मुमुक्षुः- यहाँ .. ऐसा हुआ कि पहले वेदनमें ख्यालमें आना चाहिये कि मुझे जो बाहरमें वृत्ति जाती है वह आकुलतारूप है। तो यहाँ दुःख लगे और यहाँ-से कैसे हठे और कहाँ ढूँढे? कहाँ सुख मिलेगा? ऐसी प्रक्रिया शुरू-से ही होती है?
समाधानः- आकुलता तो वेदनमें आती है, परन्तु सुख कहाँ है, ये तो उसको स्वानुभूति नहीं होती है। ये दोनों साथमें होता है। स्वरूपको ग्रहण करे और परसे छूटता है। वास्तवमें तो स्वभावको ग्रहण करते ही विभाव-से छूट जाता है। परन्तु विचार करे, आकुलता लक्षण है, ऐसा विचार करे, ख्यालमें ले, लेकिन आनन्दकी स्वानुभूति नहीं है, इसलिये ख्यालमें नहीं आता। परन्तु विचार-से नक्की करता है कि आनन्द आत्मामें है, बाहरमें नहीं है। यथार्थ स्वभावको ग्रहण करे तब आकुलता छूटती है। स्वानुभूति होती है तो विभाव-से भेद हो जाता है। वास्तवमें तो ऐसा है। परन्तु पहले ऐसा क्रम पडता है। भावना, रुचि और नक्की करता है तो ऐसा नक्की करता है कि यह आकुलता है, मेरे आत्मामें सुख है।
वास्तविकपने तो अस्तिको ग्रहण करता है तो नास्तित्व हो जाता है। यथार्थपने अस्ति ग्रहण करे तो उसको ... परन्तु ये देखनेमें नहीं आता, क्या करना? आकुलता वेदनमें आती है कि ये तो आकुलता है। आकुलतामें सुख लगे तो उसमें सुख मान- मानकर उसमें अनन्त कालसे खडा है। यथार्थपने यदि तुझे दुःख लगे तो सुख तेरेमें है, तेरी ओर प्रतीत करके मुड जा कि सुख मेरेमें ही है। ऐसा नक्की करके स्वभाव तरफ मुडकर उसमें भेदज्ञान करके उसमें स्थिर हो जा। स्वभावकी अस्तिको ग्रहण कर ले। व्यवहार-से ऐसा क्रम आता है। बाकी स्वभावकी अस्ति ग्रहण करे तो नास्ति हो जाती है। द्रव्य ज्ञायक, अखण्ड ज्ञायकको ग्रहण करता है, द्रव्य पर दृष्टि करता है। वह अस्तिको ग्रहण करता है। गुणका भेद भी नहीं, वह द्रव्य पर दृष्टि करता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ करनेके लिये दृढ प्रतीति होनी चाहिये कि मेरेमें ही सुख है। वहाँ-से...