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समाधानः- दृढ प्रतीति होनी चाहिये। सुख मेरेमें ही है, सर्वस्व मेरेमें ही है, ऐसा नक्की करना चाहिये। जितना यह ज्ञान है, उसमें संतुष्ट हो, उसमें सुख मान, उसमें तृप्त हो। तो तुझे अनुपम सुखकी प्राप्ति होगी। दिखता है .. ज्ञानमें ही सब है। उसमें तृप्त हो, उसमें संतोष मान, उसकी प्रतीत कर, उसमें रुचि कर। तो तुझे अनुपम सुखकी प्राप्ति होगी। वास्तवमें निश्चयमें दोनों साथमें होते हैं, परन्तु उसका क्रम आता है।
मुमुक्षुः- बहुत .. आपने कहा, पहले प्रतीति कर, तो ही पुरुषार्थ शुरु होगा।
समाधानः- तो ही शुरु होगा।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ नहीं उठनेका कारण यह है कि दृढ प्रतीति उस प्रकारकी नहीं होती है।
समाधानः- प्रतीतिमें मन्दता रहती है, दृढता नहीं आती है। मुमुक्षुः- आत्माकी तीव्र जरूरत लगे। तीव्र जरूरत लगे तो अपनेआप.. समाधानः- पुरुषार्थ उस तरफ मुडता जाता है। रुचि अनुयायी वीर्य। प्रतीति दृढ हो तो प्रयत्न भी उस ओर चलता है। मुझे इसकी की जरूरत है, इसकी जरूरत नहीं है। ऐसा दृढ हो तो प्रयत्न भी उस ओर चलता है। जगतकी मुझे कोई जरूरत नहीं है। मेरी जरूरत आत्मामें ही है। प्रयोजन हो तो सब आत्माके साथ प्रयोजन है। मुझे आत्माका प्रयोजन है। और आत्माका महान साधन ऐसे देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन बाहरमें, अंतरमें आत्माका प्रयोजन।