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समाधानः- ... आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है। विभावस्वभाव अपना नहीं है। उनसे भिन्न आत्मा है। उससे भेदज्ञान करना और आत्माको ग्रहण करना। ... आत्माका लक्षण पहचानकर उसकी श्रद्धा-प्रतीत और उसमें लीनता करना वही मुक्तिका मार्ग है। बाहरमें क्रिया और शुभभाव तो पुण्यबन्धका कारण है। बीचमें आता है तो पुण्यबन्ध होता है, भवका अभाव नहीं होता। देवलोक होता है। भवका अभाव तो शुद्धात्माको पीछानने-से होता है। शुद्धात्माकी श्रद्धा, उसका ज्ञान, उसमें लीनता और स्वानुभूति करने-से मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। जन्म-मरण टालनेका वही उपाय है।
जन्म-मरण करते-करते अनेक दुःख संसारमें (भोगे)। भीतरमें आत्माका स्वभाव ग्रहण करना चाहिये। वह करने लायक है। और सब तो तुच्छ है। सर्वस्व साररूप तो आत्मा ही है। वही कल्याणस्वरूप है, वही मंगलस्वरूप है। और जीवनमें सर्वस्व साररूप आत्म पदार्थ है। उसके लिये वांचन, विचार सब आत्माको पहचाननेके लिये करना चाहिये।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन कैसे करना?
समाधानः- वह भी भेदज्ञान करने-से होता है। जो देव-गुरु-शास्त्रने जो मार्ग बताया है, वह मार्ग ग्रहण करके आत्माको पहचानना। जैसा भगवानका स्वरूप है, वैसा अपना स्वरूप है। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको पीछानता है, वह अपनेको पीछानता है। अपनेको पीछानता है, वह भगवानको पीछानता है। अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको पीछानना। मैं द्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत हूँ। उसमें शुद्धता भरी है। अनन्त काल गया तो भी उसमें- मूल पदार्थमें अशुद्धता हुयी नहीं, पर्यायमें अशुद्धता है। इसलिये मेरा आत्मस्वभाव अनादिअनन्त शुद्ध है। इसमें अनन्त गुण हैं। उसकी पर्यायमें अशुद्धता है तो उसका भेदज्ञान करके और मैं शुद्धात्मा हूँ, उसकी दृष्टि-प्रतीत करके विभाव-से अलग होना। उसका भेदज्ञान करके शुद्धात्माकी पर्याय प्रगट करना। बारंबार उसकी लगन, महिमा लगाना। वही जीवनका कर्तव्य है।
आत्मा अनादिअनन्त शुद्ध है। उसमें कोई अशुद्धता भीतरमें नहीं आयी। पर्यायमें अशुद्धता हुयी है। जैसे पानी स्वभाव-से शीतल है। अग्निके निमित्त-से उसकी उष्णता