पर्याय होती है। ऐसे आत्मा स्वभाव-से शीतल ही है। उसका ज्ञान करना, वही स्वानुभूतिका उपाय है। उसकी प्रतीत करना, ज्ञान करना, लीनता करना वही स्वानुभूति करनेका उपाय एक ही है।
स्वभावमें-से स्वभाव आता है, विभावमें-से स्वभाव नहीं आता है। सोनेमें-से सोनेके गहने बनते हैं और लोहेमें-से लोहोके गहने बनते हैं। ऐसे स्वभावमें-से स्वभावकी पर्याय होती है, विभावमें-से विभाव होता है। शुभभाव करे तो भी पुण्यबन्ध होता है, स्वभाव नहीं प्रगट होता। पुण्य तो बीचमें आता है। और स्वभावको ग्रहण करने-से स्वभावकी पर्याय (प्रगट होती है), शुद्धात्माको ग्रहण करने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। वह ग्रहण करने योग्य है।
पहले नक्की करना कि अनादि काल-से अगृहित भी एकत्वबुद्धि है। गृहीत तो छोडना। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र कैसे होनो चाहिये, यह नक्की करना चाहिये। जिनेन्द्र देव और गुरु जो यथार्थ आत्माकी साधना करते हैं और शास्त्रमें जो मार्ग बताया है, ऐसे देव-गुुरु-शास्त्र यथार्थ है, उसको ग्रहण करना चाहिये। उसका स्वरूप समझना। और उसमें जो विपरीत मान्यता है वह छोड देना। यह गृहीत मिथ्यात्व छूटनेका उपाय है।
ऐसा नक्की करना चाहिये कि सच्चे वीतरागी देव ही देव है। सच्चे आत्माकी साधना मुनिराज करते हैं वे गुरु हैं, शास्त्रमें जो स्वानुभूतिका मार्ग बताया वही शास्त्र यथार्थ है। उसको बराबर नक्की करना चाहिये। जिसको आत्माकी लगी, आत्माका कल्याण करना है, उसको गृहीत मिथ्यात्व छूट जाता है। आत्माका कल्याण करना है, भवभ्रमण- से छूटना है तो उसको गृहीत मिथ्यात्व छूट जाता है। भीतरमें जिसको अगृहीत भी छोडना है तो गृहीत तो छूट ही जाता है। अगृहीत अनादिका है वह छोडने लायक है। वह छूटे तब स्वानुभूति होती है।
सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करके उसका यथार्थ व्यवहार करना, वह तो स्थूल है। वह तो-गृहीत मिथ्यात्व तो-आसानी-से छूट जाता है। अगृहीत छूटना मुश्किल है। बाहर-से सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करना चाहिये। वह तो स्थूल है, वह छूटना तो (आसान है)। अनन्त कालमें जीवने वह भी छोडा है। अगृहीत नहीं छूटा है।
समाधानः- .. ग्रहण करनेकी रुचि लगे। उसकी लगन, उसकी महिमा, वस्तुका विचार होना चाहिये। मैं चैतन्यद्रव्य अनादिअनन्त हूँ। .. द्रव्य है, उसके गुण कैसे हैं, उसकी पर्याय कैसी है? ऐसा विचार, मंथन भीतरमें होना चाहिये। दिन और रात उसकी लगन लगनी चाहिये। बारंबार-बारंबार मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, ये सब मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसा अभ्यास होना चाहिये। बारंबार क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें चैतन्यका अभ्यास होना चाहिये। सच्चा भेदज्ञान तो परिणतिरूप तो बादमें