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मुमुक्षुः- ४७ शक्तिओंका स्मरण करते हैं। अपने स्वभावकी महिमा लानेके लिये क्या बारंबार शक्तियोंका स्मरण करना चाहिये? उससे स्वभावकी महिमा...
समाधानः- ... स्मरण करता है... मुमुक्षुको क्या करना? ज्ञानी क्या कहते हैं, उसका आशय ग्रहण करना चाहिये। वे ऐसा करते थे, इसलिये हमें भी ऐसा करना चाहिये, ऐसा अर्थ नहीं है। शक्तियोंको ग्रहण करनेमें तो उसका लाभ है, कोई नुकसान नहीं है। ४७ शक्तिका स्मरण करके उसका अभ्यास करे तो आत्म स्वरूपकी महिमा आती है। ऐसा करनेमें कुछ (दिक्कत नहीं है), कर सकता है। उसमें कोई ऐसा नहीं होता।
गुरुदेव ऐसा करते थे, इसलिये ऐसा करना, ऐसा कुछ नहीं है। जिसको जो रुचे सो करना। कोई ज्ञायक-ज्ञायक करता है, तो भेदज्ञान करनेका अभ्यास करना। उसके साथ शास्त्रमें क्या (कहा है)? स्वयंको शंका हो तो निःशंक होनेके लिये कोई तत्त्व विचार स्वयंको जो रुचे सो करना। गुरुदेव ऐसा करते थे इसलिये ऐसा करना, उसका कोई अर्थ नहीं है। स्वयंको यदि उसमें महिमा आती है तो वह करना। उसमें तो लाभ है। अपनेको लाभ लगे तो वह करना। मुझे किसमें रस आता है, उस अनुसार करना।
मुझे क्या स्मरण करना? मुझे ज्ञायकका अभ्यास करनेके लिये किसका स्मरण करना? चैतन्यकी शक्तियाँ विचारनी। ४७ शक्तियाँ विचारनी, ज्ञायकका विचार करना, उसका सत्य स्वरूप क्या? शास्त्र अनेक प्रकार क्या आते हैं? स्वयंको जहाँ रुचि हो वह करना।
गुरुदेव तो महापुरुष था। उनकी परिणतिमें जो उन्हें लगता था वह करते थे, इसलिये दूसरोंको ऐसे ही करना, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उनका श्रुतज्ञान तो अपूर्व था। उन्हें तो श्रुतकी धारा अपूर्व थी। अनेक जातकी उन्हें श्रुतकी लब्धियाँ प्रगट हुयी थी। उन्हें उसमें रस आता था तो ऐसा करते थे। इसलिये सबको ऐसा करना ऐसा उसका अर्थ नहीं है। वे तो ऐसा विचार करते थे, बाकी तो अनेक जातका चिंतवन उन्हें चलता था। वह एक ही चिंतवन था, ऐसा नहीं है। उन्हें तो अनेक जातका (चिंतवन चलता था)। उन्होंने तो शास्त्रोंके शास्त्र खोल दिये। शास्त्रोंका रहस्य खोल दिया। उन्हें तो अन्दर शास्त्रोंका समुद्र खुला था।
उसमें-से वे बारंबार उसका स्मरण करते थे। उन्हें उसमें रस आता था। उन्हें अन्दर शास्त्रमें-से आनन्द आता था। एक ४७ शक्तियाेँके लिये नहीं, कितनी गाथाओंका उन्हें आनन्द आता था।
मुमुक्षुः- बहुत गाथामें कहते थे, यह गाथा तो अपूर्व है, यह गाथा तो अपूर्व है।
समाधानः- हाँ, उन्हें तो बहुत गाथाओंका आनन्द आता था।
मुमुक्षुः- बहुत अपेक्षाएँ आती हैं, ... बुद्धि तो थोडी है, अपेक्षाएँ बहुत हैं,