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उसके लिये क्या उपाय है?
समाधानः- अपेक्षाएँ बहुत हैं। मूल द्रव्यदृष्टिका प्रयोजन, मुक्तिका मार्ग जिससे सधे वह ग्रहण करना। द्रव्य-पर्यायका, निश्चय-व्यवहारका सम्बन्ध कैसे है, वह विचारना। मैं शाश्वत अनादिअनन्त द्रव्य हूँ, उसमें पर्यायकी साधना कैसे होवे? पर्याय अधूरी है, द्रव्य पूर्ण है, उसका मेल कैसे होवे? यह सब सन्ध करके, शास्त्रमें बहुत अपेक्षाएँ आती है, उन सब अपेक्षाओंका सम्बन्ध करके आत्मामें जैसे लाभ हो, वैसा करना। द्रव्यानुयोगमें बहुत आता है। उसको यथार्थ समझ लेना चाहिये।
अनादि-से भ्रम हो रहा है, एकत्वबुद्धि-पर्यायमें दृष्टि है। द्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत शुद्ध है, उसमें पर्यायकी अशुद्धता कैसे है? उसकी साधना कैसे होवे? साध्य पूर्णका लक्ष्य करके और पर्यायकी साधना-शुद्धात्मामें शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। सम्यग्दर्शन होवे तो तुरन्त केवलज्ञान नहीं होता है। बीचमें साधकदशा रहती है। तो द्रव्यदृष्टि प्रगट करके स्वानुभूति और सम्यग्दर्शन प्रगट होवे तो भी लीनता बाकी रहती है। केवलज्ञान (होने तक)। साधक और साध्यका कैसे मेल है? यह सब समझकर सब अपेक्षा समझनी चाहिये। द्रव्य-गुण-पर्यायकी सब अपेक्षा समझकर, मुख्य मुक्ति मार्ग कैसे है वह ग्रहण करना चाहिये।
द्रव्यदृष्टिके प्रयोजनके साथ निश्चय-व्यवहारका सम्बन्ध कैसे है, यह समझकर सब समझना चाहिये। द्रव्यदृष्टि मुख्य रखकर उसमें पर्याय भी अशुद्ध है, कैसे स्वानुभूति होवे? उसकी पूर्णता होवे, उसकी लीनता होवे, यह केवलज्ञान तक ऐसा सब मेल करके सब समझना चाहिये।
मुमुक्षुः- पर्याय गौण करके भिन्न कही जाती है या वास्तवमें वह भिन्न होकरके दृष्टिके विषयको विषय बनाती है?
समाधानः- वास्तविक भिन्न नहीं है। द्रव्यदृष्टि मुख्य होती है तो उसमें पर्याय गौण हो जाती है। वह (-पर्याय) अंश है, वह (-द्रव्य) अंशी है। अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि जाने-से पर्यायका लक्ष्य गौण हो जाता है। द्रव्य और पर्याय बिलकूल भिन्न होवे तो पर्याय द्रव्य हो जाती है। पर्याय ऐसे नहीं होती है कि द्रव्यका कोई आश्रय नहीं है पर्यायको और पर्याय निराधार है, ऐसा तो नहीं है।
पर्याय एक अंश है इसलिये स्वतंत्र है। परन्तु वह अंश अंशीका अंश है। इसलिये उसको गौण रखकरके समझना चाहिये।
मुमुक्षुः- गौण रखे? समाधनः- गौण रखे। दृष्टिके जोरमें द्रव्य मुख्य है तो पर्याय गौण है। पर्याय और द्रव्य वैसे स्वतंत्र नहीं है। वह अंशरूप-से स्वतंत्र है। पर्यायको द्रव्यका आश्रय