१८ रहता है। कैसे स्वतंत्र है, यह अपेक्षा समझनी चाहिए।
मुमुक्षुः- ... फरमाया कि सम्यग्दर्शनके विषयमें सम्यग्दर्शनकी पर्याय नहीं है।
समाधानः- सम्यग्दर्शन पर्याय विषयमें नहीं है?
मुमुक्षुः- हाँ, विषयमें।
समाधानः- सम्यग्दर्शनका विषय नहीं है, परन्तु उसमें गौण रह जाती है। विषय तो द्रव्य है। विषय द्रव्य है। पर्यायको विषय नहीं करती, दृष्टि विषय नहीं करती है। ज्ञानमें गौणपने रह जाता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानमें रहता है, गौणपने।
समाधानः- ज्ञानमें रहता है। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें रहते हैं। दृष्टि अलग और ज्ञान अलग (ऐसा नहीं)। दृष्टि सम्यक हुयी उसके साथ ज्ञान भी रहता है। दृष्टि और ज्ञान साथमें रहते हैं, ज्ञानमें वह पर्याय गौण रहती है। दृष्टिका विषय द्रव्य है तो भी दृष्टि और ज्ञान दोनों भिन्न-भिन्न नहीं है। दृष्टिके साथ जो ज्ञान रहता है तो ज्ञानमें वह पर्याय ख्यालमें रहती है। विषय भले द्रव्य होवे, तो भी पर्याय रहती है। पर्यायका ज्ञान उसके साथ रहता है। ज्ञान, द्रव्य और पर्याय दोनोंको जानता है। ज्ञानमें द्रव्य और पर्याय दोनों साथमें रहते हैं।
समाधानः- ... सब करने लायक सर्वस्व हो तो आत्मामें सब कुछ है। बाहरमें कुछ है नहीं। बाहरमें तो एकत्वबुद्धि, अभ्यास बाहरका है इसलिये भीतरमें जाता नहीं है। तो पुरुषार्थ अपने करना पडता है। पुरुषार्थ करे, पुरुषार्थ करने-से होता है। अपना प्रमाद है, किसीका दोष नहीं है। गुरुदेवने तो बहुत बताया है, करना तो अपनेको पडता है।
मैं ज्ञायक हूँ, बाकी सब विभाव है। विभावमें सुख नहीं है, सुख आत्मामें है। ये सब आकुलतारूप है-दुःखरूप है। ऐसी प्रतीत, दृढतापूर्वक प्रतीत करनी चाहिये। प्रतीत करे और पुरुषार्थ करे तो होता है। बारंबार-बारंबार उसका अभ्यास करना पडता है। एक दफे करे ऐसा नहीं, बारंबार (करे)।
गुरुदेवने जो बताया है, जो शास्त्रमें आया है। पुरुषार्थ तो कोई रोकता नहीं है। कर्म रोकते नहीं है, कोई पदार्थ रोकते नहीं, अपने कारण-से रुक जाता है। बाहरमें रुचि है। स्वरूपमें रुचि करनी चाहिये।
मुमुक्षुः- कुछ लोग कहते हैं कि क्रमबद्धपर्यायके बहाने, जो होना है वही होगा। पुरुषार्थ तो हम बहुत करते हैं, लेकिन नहीं होता है तो क्रमबद्धपर्यायमें नहीं है। होने योग्य नहीं है तो कैसे होगा? उसका क्या किया जाय? उसका समाधान क्या है?
समाधानः- क्रमबद्ध ऐसे क्रमबद्ध नहीं होता है। क्रमबद्ध तो, पुरुषार्थके साथ