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क्रमबद्ध होता है। गुरुदेव कहते हैं कि ज्ञायक तरफ दृष्टि करो। ज्ञायकको जिसने समझा, उसने क्रमबद्धको समझा। जो ज्ञायक नहीं समझता है, उसको क्रमबद्ध भी समझमें नहीं आया है। क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थका सम्बन्ध है। पुरुषार्थ बिना क्रमबद्ध नहीं है। जिसके लक्ष्यमें पुरुषार्थ नहीं है, उसका क्रमबद्ध यथार्थ नहीं होता। वह तो संसारका क्रमबद्ध है।
जिसे पुरुषार्थकी दृष्टि होती है, उसका क्रमबद्ध मोक्षके तरफ जाता है। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धको सम्बन्ध है। ऐसे काल, स्वभाव आदि, पाँच लब्धियाँ साथमें होती है तब अपना कार्य होता है। क्रमबद्ध अकेला समझने-से नहीं होता, पुरुषार्थ पूर्वक क्रमबद्ध समझना।
मुमुक्षुः- माताजी! जब पर्यायमें अल्पज्ञता है तो सर्वज्ञ स्वभावका विश्वास कैसे आयेगा?
समाधानः- पर्यायमें अल्पज्ञता भले होवे। अपना स्वभाव सर्वज्ञ है। पर्याय अल्पज्ञ होवे तो भी विश्वास हो सकता है। सर्वज्ञकी परिणति प्रगट करनेमें तो देर लगती है। सर्वज्ञकी प्रतीत तो हो सकती है। प्रतीत होनेमें अल्पज्ञ पर्याय उसमें रोकती नहीं है। सर्वज्ञकी प्रतीत तो हो सकती है कि मैं सर्वज्ञ हूँ। ऐसी प्रतीति हो सकती है। मैं ज्ञायक, संपूर्ण ज्ञायक हूँ। मैं सर्वज्ञ शक्ति-से सर्वज्ञ हूँ। प्रगट नहीं हुआ, परन्तु ऐसी प्रतीत हो सकती है।
मुमुक्षुः- स्वानुभूतिके लिये हमको इन्द्रियज्ञान बाधक लगता है। इन्द्रिय ज्ञान .. तो अनुभूति होगी।
समाधानः- अपने करने-से होता है, इन्द्रियका ज्ञान रोकता नहीं है। अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट करनेमें अपनी रुचि बदल देनी। स्वरूप तरफ रुचि करे, उसमें लीनता करे, प्रतीत करे। जिसका स्वभाव मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञानमात्र स्वभाव है उतना मैं हूँ। उसमें विश्वास करके उसमें स्थिर हो जाय, लीनता करे तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है। इन्द्रिय ज्ञान उसमें रोकनेवाला नहीं है। भीतरमें-से प्रगट करना अपने हाथकी बात है। कोई इन्द्रियज्ञान उसमें रोकता नहीं है। इन्द्रियज्ञान होवे इसलिये अतीन्द्रिय नहीं होता है, ऐसा नहीं है।
भीतरमें-से प्रगट करना स्वयंसिद्ध अपना स्वभाव है। अपनेआप, अपारिणामिक द्रव्य अपनेआप प्रगट कर सकता है। देव-गुरु-शास्त्र उसका निमित्त होता है। उपादान अपना है। जो जिनेन्द्र देवने बताया, जो गुरुदेवने बताया, जो शास्त्रमें होता है, सब अपने करना पडता है। अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट करे, उसमें स्वानुभूति प्रगट करना अपने हाथकी बात है। कोई कर नहीं देता है। उसमें कोई रोकता नहीं है। इन्द्रिय ज्ञान उसमें रुकावट नहीं करता है।