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माताजी! उसका थोडा अधिक विस्तार करके..
समाधानः- वह तो सहज ऐसे आ गया। डोर तो द्रव्यदृष्टिके हाथमें ही है। पर्याय स्वतन्त्र परिणमती है, परन्तु उसे द्रव्यका आधार है और द्रव्यदृष्टिका आधार है। दृष्टिके आधार बिना पर्याय स्वतंत्र (ऐसे नहीं परिणमती)। जो विभावकी ओर जिसकी दृष्टि है, एकत्वबुद्धिकी ओर, उसकी सभी पर्याय वैसे ही परिणमती है, विभावकी ओर। और जिसकी दृष्टि स्वभावकी ओर गयी, जिसकी दृष्टिको द्रव्यका अवलम्बन हुआ, उसकी सभी पर्यायें स्वभावकी ओर परिणमती है। इसलिये द्रव्यदृष्टि है वही पुरुषार्थकी डोर उसके हाथ लगी है। द्रव्यदृष्टि-द्रव्यका दृष्टिमें आलम्बन लिया, वही उसका पुरुषार्थ है। वह पुरुषार्थ और फिर उसे लीनताका भी पुरुषार्थ है। दृष्टिका बल है और लीनता भी अपनी ओर (है)। यानी सभी पर्याय, दृष्टिके आलम्बनसे सभी पर्याय स्वभावकी ओर परिणमती हैं। अमुक अधुरापन है, उतना विभाव होता है। बाकी उसे दृष्टिके आलम्बनसे सभी पर्यायें होती हैं। उसकी पर्यायको क्रमबद्ध कहते हैं, लेकिन उसके साथ पुरुषार्थ साथमें है।
मुमुक्षुः- माताजी! आपकी चर्चामें पाँच बार सुनी, आपने करीब १०-१५ बार...
समाधानः- कहते थे कि दृष्टि बदल गयी, उसे ही क्रमबद्ध लागू पडता है। कोई उन्हें पूछते थे तो ऐसा कहते थे, तू ज्ञायक हो जा। दृष्टिके साथ क्रमबद्ध आ गया। ऐसा कहते थे। दृष्टिका आलम्बनका कहते थे उसमें साथमें पुरुषार्थ आ ही जाता है। गुरुदेवने कर्तृत्व छुडानेको तू कर्ता नहीं है, ऐसा कहते थे। लेकिन तेरे पुरुषार्थकी डोर तो तेरे हाथमें ही है। पुरुषार्थ बिनाका क्रमबद्ध, ऐसे अकेला क्रमबद्ध लेनेसे आत्मार्थीको कुछ करना नहीं (रहता)। आत्माका प्रयोजन जिसे उसकी नजर पुरुषार्थकी ओर ही रहनी चाहिये। क्रमबद्ध (अनुसार) होता है ऐसा लेनेसे आत्मार्थका जो प्रयोजन है, मुझे आत्माका करना है, उसकी भावना... (क्रमबद्ध) पर वजन देता रहे, उसे अपनी ओर मुडना नहीं रहता। कर्ताबुद्धि छुडानेको (कहते हैं) तू कुछ नहीं कर सकता। जैसे परद्रव्यके परिणाम तू बदल नहीं सकता और अंतरमें तेरे पुरुषार्थकी डोर प्रगट हुयी, पर्याय परिणमति है, ऐसा कहना है। स्वभावकी ओर। दृष्टिकी डोर उसके हाथमें ही रही है। उस प्रकारसे पर्याय परिणमती है।
मुमुक्षुः- डोर द्रव्यके हाथमें है।
समाधानः- हाँ, डोर द्रव्यके हाथमें है। जैसे ठीक पडे वैसे पर्याय परिणमती रहे, उसमें मैं क्या करुँ? ऐसा उसमें नहीं है।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर बात आयी।
समाधानः- द्रव्यदृष्टिके आलम्बन बिना वह वैसे नहीं परिणमती। स्वभावकी ओर