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मुमुक्षुः- अपेक्षाओँकी खीँचतान-से जो कुछ उलझनें उत्पन्न हुयी है, आप स्पष्टीकरण करते हो तो सबको एक जातका समाधान भी हो जाता है।
मुमुक्षुः- सबके पक्ष ऐसे हो गये हैं। जिसे जिज्ञासा हो वह समझता है। बाकी सबकी दृष्टि अनुसार सब खींचते हैं। .. बात ऐसी है, सबकी दृष्टि अनुसार खीँच लेते है। जिसे जिज्ञासा यथार्थ हो, उसे बराबर समझमें आये ऐसा है। ऐसा बहुत बार होता है। तो भी कोई प्रसंग हो तो तब आप विडीयो लाते ही हो।
मुमुक्षुः- हमें तो आप फरमाते हो, इसलिये वह प्रसंग ही बन जाता है।
समाधानः- .. गुरुदेवने तो चारों ओर बरसात बरसा गये हैं। मैं तो ठीक, प्रश्न पूछे उसके जवाब देती हूँ। गुरुदेवने चारों ओर मूसलाधार बारीश बरसा दी है। हर जगर अंकुर उत्पन्न हो गये, ऐसी बरसात बरसायी है। आम बोये हैं।
मुमुक्षुः- बारीश बरसनेके बाद किसीने अंगीकार कर लिया हो, उसमें-से भी नदी, झरने आदि बहते हैं न। उसका भी लाभ तो मिलना चाहिये न। ... देते होंगे, उसका लाभ तो हम लेनेवाले हैं।
समाधानः- आप आते हो तब प्रश्न तो पूछते ही हो।
मुमुक्षुः- बालक हो तो उसकी एक आदत होती है कि माताको थोडा परेशान करे। और माताको ऐसा होता है कि बालक परेशान करे तो भी मनमें उसे आनन्द होता है कि भले बालक परेशान करे। इसलिये हम बालक जैसे हैं।
समाधानः-
प्रश्न-चर्चा होती है, बाकी स्वास्थ्य ऐसा रहता है, इसलिये थोडी दिक्कत होती है। गुरुदेवने बहुत (समझाया है)। बहुत प्रश्न हो गये हैं।
मुमुक्षुः- .. स्वपरप्रकाशक है ऐसा भी कहनेमें आता है। दोनोंकी विवक्षा क्या है? कहाँ वजन है?
समाधानः- स्वप्रकाशक अर्थात स्वयं परमें जाता नहीं है, पर पदार्थके साथ एक नहीं हो जाता है। स्व और पर। जो भी जानता है, वह स्वयं ज्ञानके स्वभाव-से जानता है। पर-से स्वयं जानता नहीं है। इसलिये स्वप्रकाशक कहनेमें आता है। बाकी स्वपरप्रकाशक उसका स्वभाव है।
स्वप्रकाशक यानी स्वको ही जाने और परको जानता ही नहीं, उसे परका कुछ ज्ञान ही नहीं होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। तो-तो उसका ज्ञानस्वभाव मर्यादित हो जाय। स्वप्रकाशक यानी परको जानता ही नहीं, ऐसा हो तो ज्ञान मर्यादित हो जाय। वास्तवमें स्वयं अपनी परिणतिमें रहे, स्वभावमें रहे और सहज ज्ञात हो जाय। अर्थात ज्ञान ज्ञानको जानता है, ज्ञान परको नहीं जानता है, उस अपेक्षा-से ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु ज्ञान ज्ञानको जाने यानी वह दूसरे का कुछ स्वरूप जानता नहीं है,