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मुमुक्षुः- ध्रुव बिना अकेले उत्पाद-व्ययका विचार करना भी व्यर्थ है।
समाधानः- व्यर्थ है। ध्रुव बिना अकेला उत्पाद-व्यय क्या? कहीं असतका उत्पाद नहीं होता। जो नहीं है, उसका व्यय नहीं होता, जो है उसका व्यय होता है। ध्रुवता टिकाकर उत्पाद और व्यय होते हैं। पर्यायका उत्पाद-व्यय है और द्रव्य स्वयं टिकता है।
मुमुक्षुः- वस्तुका बंधारण पहले जानना चाहिये। तो वह बंधारण कैसा? वस्तुका बंधारण किसे कहते हैं?
समाधानः- वस्तु किस स्वभाव-से है? वह किस प्रकार-से नित्य है? किस प्रकार-से अनित्य है? किस अपेक्षा-से नित्य है? किस अपेक्षा-से अनित्य? उसका उत्पाद-व्यय क्या? उसका ध्रुव क्या? उसका द्रव्य क्या? उसे गुण क्या? उसकी पर्याय क्या? द्रव्य कैसा स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त है? वह सब उसका बंधारण है। द्रव्य-गुण- पर्याय, उत्पाद-व्यय और स्वतःसिद्धपना अनादिअनन्त, आदि सब उसका बंधारण है। फिर द्रव्य, उसमें विभाव कैसे हुआ? उसका स्वभाव कैसे प्रगट हो? मूल वस्तु, उसके द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय उसका-द्रव्यका बंधारण है। उसका कोई कर्ता नहीं है, स्वयं स्वतःसिद्ध वस्तु है। वह उसका बंधारण है।
मुमुक्षुः- कोई पर्याय शुद्ध हो या अशुद्ध हो, वह ध्रुवमें-से तो निकलती नहीं है। निकले तो ध्रुव खाली हो जाय। तो फिर स्वभाव पर दृष्टि जाय तो ही पर्यायमें शुद्ध अंश प्रगट हो, उसका क्या कारण?
समाधानः- ध्रुवमें-से नहीं निकलती है अर्थात जो वस्तु स्वयं अनन्त शक्ति- अनन्त गुण-से भरी वस्तु है। दृष्टि स्वभाव पर जाय, उसमें गुण पारिणामिकभाव है, उसमें पर्याय प्रगट होती है। ध्रुव खाली नहीं हो जाता। अनन्त काल परिणमे तो भी द्रव्य कहीं खाली नहीं हो जाता। परिणमे तो भी ज्योंका त्यों रहता है। ऐसी द्रव्यकी कोई अचिंत्यता है। उसमें अनन्त गुण हैं। उन गुणोंकी पर्याय-उसका कार्य होता ही रहता है। यदि कार्य न हो तो वह गुण कैसा? वह ऐसा कूटस्थ नहीं है। तो फिर द्रव्य पहचानमें ही न आये। द्रव्य अकेला कूटस्थ हो और परिणमे ही नहीं, तो वह द्रव्य पहचानमें नहीं आता कि यह चेतन है या जड है। द्रव्य यदि परिणमे नहीं तो पहचान ही नहीं हो। अकेला कूटस्थ हो तो।
कूटस्थ तो (इसलिये कहते हैं कि) तू पर्याय पर या भेद पर दृष्टि न कर। दृष्टि एक अखण्ड जो एकरूप वस्तु है उस पर दृष्टि कर। द्रव्यका जो पारिणामिक स्वभाव है उसका नाश नहीं होता। द्रव्यकी द्रव्यता कहीं चली नहीं जाती। द्रव्य परिणमता है। उस पर दृष्टि करे तो द्रव्य जिस स्वभावरूप हो उस स्वभावरूप परिणमता है। उसकी दृष्टि विभाव तरफ है तो विभावकी पर्याय होती है और स्वभाव पर दृष्टि जाय तो