स्वभावकी पर्याय हो। तो भी उसका जो स्वभाव है, द्रव्य द्रव्यत्व छोडता नहीं, द्रव्य द्रव्यरूप तो परिणमता ही है। अकेला कूटस्थ हो तो द्रव्यकी पहचान ही न हो। द्रव्य द्रव्यका कार्य करता ही रहता है। स्वभाव पर दृष्टि जाय तो स्वभावका कार्य होता रहे। स्वयं सहज होता रहता है। उसे बुद्धिपूर्वक या विकल्पपूर्वक करना नहीं पडता सहज ही होता है। द्रव्य परिणमता ही रहता है।
मुमुक्षुः- पहले जो आपने कहा कि कथंचित परिणामी है, उसके आधार-से यह...
समाधानः- कथंचित परिणामी और कथंचित अपरिणामी। परिणामी है, द्रव्य परिणमता है। स्वभाव पर दृष्टि जाय तो वह स्वतः स्वयं स्वभावरूप परिणमता है।
मुमुक्षुः- पदार्थका ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप प्रति समय बिना प्रयत्न परिणमन तो होता ही रहता है। क्योंकि परिणमना वह तो सिद्धांतिक बात है। तो शुभाशुभ रूप अथवा शुद्धरूप, किस प्रकार परिणमना उसमें जीवका कोई अमुक गुण निमित्त पडता है, अर्थात ज्ञान या वीर्य?
समाधानः- उसमें उसका ज्ञायक जो असाधारण गुण है, उस ज्ञानको पहचाने, ज्ञायकताको पहचाने। और उस रूप प्रतीतको दृढ करे। दृष्टि अर्थात प्रतीत। द्रव्य पर दृष्टि-प्रतीत करे, उस प्रकारका ज्ञान करे और उस जातका उसकी आंशिक परिणति होती है। इसलिये उसमें उसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र तो (होते ही हैं)। विशेष चारित्र तो बादमें होता है। लेकिन उसमें दृष्टि, ज्ञान और उसकी आंशिक परिणति हो तो उसकी शुद्ध पर्याय प्रगट होती है।
दृष्टि तो एक द्रव्य पर है, उसके साथ उसे ज्ञान भी सम्यक होता है। और परिणति भी उस तरफ झुकती है। तो उसमें-से शुद्ध पर्याय, द्रव्यमें-से सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। आज आया था न? द्रव्य किसे कहते हैं? जो द्रवित हो सो द्रव्य। गुरुदेवकी टेपमें आया था।
मुमुक्षुः- जी हाँ, आज सुबह प्रवचनमें आया था।
समाधानः- हाँ, आज सुबह (आया था)। जो द्रवित हो उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य परिणमता है। स्वभाव पर दृष्टि जाय तो स्वभावरूप परिणमता है। विभावमें दृष्टि है तो विभावकी पर्यायें होती हैं। स्वभाव पर दृष्टि जाय तो स्वभावकी पर्यायें होती हैं। बाकी वस्तु तो पारिणामिकभाव-से अनादिअनन्त एकरूप सदृश्य परिणाम-से परिणमता है। वह कोई अपेक्षा-से कूटस्थ और कोई अपेक्षा-से परिणामी, कोई अपेक्षा-से अपरिणामी है।
मुमुक्षुः- अकेला कूटस्थ मानें तो सब भूल होती है।
समाधानः- अकेला कूटस्थ हो तो उसमें कोई वेदन भी नहीं होगा, स्वानुभूति