Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

४४ भी नहीं होगी। किसी भी प्रकारका गुणका कार्य (नहीं होगा)। जो केवलज्ञान प्रगट होता है वह भी नहीं होगा, चारित्र नहीं होगा, कुछ नहीं होगा। यदि अकेला कूटस्थ हो तो कोई कार्य ही द्रव्यमें नहीं होगा। अकेला कूटस्थ हो तो। कथंचित परिणामी, अपरिणामी है।

सिद्ध भगवान केवलज्ञान प्राप्त करके, स्वरूपमें उन्हें परिणामीपना, परिणाम परिणमते ही रहते हैं। उन्हें प्रत्येक गुण पूर्ण हो गये। तो भी प्रत्येक गुणका कार्य अगुरुलघु स्वभावके कारण सब परिणमते ही रहते हैं। अनन्त काल पर्यंत परिणमे तो भी उसमें-से खाली ही नहीं होता, उतनाका उतना रहता है। ज्ञान अनन्त काल पर्यंत परिणमे, आनन्द अनन्त काल पर्यंत आनन्दका सागर परिणमता है, तो भी उसमें-से कम होता ही नहीं, उतनाका उतना रहता है। ऐसी द्रव्यकी अचिंत्यता है। ऐसा ही कोई द्रव्यका अचिंत्य पारिणामिक स्वभाव है। और साथमें अपरिणामी है कि जिसमें-से कुछ कम नहीं होता, परिणमे तो भी।

मुमुक्षुः- प्रमाणके विषयका द्रव्य लें तो कथंचित कूटस्थ और कथंचित परिणामी कह सकते हैं, परन्तु जो ध्रुवत्व भाव है उसे भी कथंचित कूटस्थ और कथंचित परिणामी कह सकते हैं?

समाधानः- दृष्टि एक द्रव्य पर जाती है, उसमें कोई भेद नहीं पडता है। इसलिये दृष्टिकी अपेक्षा-से तो... दृष्टि जहाँ जाय वहाँ ज्ञान सम्यक होता है। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें ही होते हैं। अकेली दृष्टि हो तो दृष्टि सम्यक होती ही नहीं। दृष्टि का विषय ही ऐसा है कि एक पर दृष्टि करे। ज्ञानका विषय ऐसा है कि वह दोनोंको जाने। परन्तु दृष्टि सम्यक तब होती है कि जब उसके साथ ज्ञान हो तो। ज्ञान दूसरा काम करे और दृष्टि दूसरा काम करे, ज्ञान मिथ्या हो और दृष्टि सम्यक हो ऐसा नहीं बनता।

प्रमाणज्ञानका मतलब वह कोई जूठा नहीं है। वह यथार्थ ज्ञान है। दृष्टिका विषय ऐसा है। दृष्टि एक पर ही होती है। परन्तु ज्ञान उसके दोनों पहलूओंका विवेक करता है। दोनों पहलूओंका विवेक साधक दशामें साथमें ही होता है। साधक दशामें दोनोंका विवेक न हो तो उसकी साधक दशा ही जूठी होगी। एक पर ही दृष्टि हो तो उसमें चारित्रदशा या केवलज्ञान या कुछ नहीं होगा। दृष्टि-सम्यग्दर्शन जहाँ हुआ वहाँ सब पूरा हो जायगा। अभी साधक दशा अधूरी है। ज्ञान सब विवेक करता है। दृष्टिको पूजनिक कहनेमें आता है।

प्रमाणको पूजनिक कहोगे तो ये सब चारित्रकी पर्याय, केवलज्ञानकी पर्याय कोई पूजनिक नहीं होगी। मुक्तिके मार्गमें दृष्टि मुख्य है, इसलिये उसे पूजनिक (कहते हैं)। (क्योंकि) मुक्तिका मार्ग उससे प्रारंभ होता है। अतः उसे पूजनिक (कहकर, ज्ञानको