४६ उसे बारंबार बदलते रहना। श्रुतके चिंतवनमें उपयोगको लगाना। विचारमें लगाना, उसीमें स्थिर न रहे तो भले ही शुभभावमें (रहे), विचारको बदलते रहना। उसका प्रयत्न करना। अनादिका अभ्यास है इसलिये बीचमें आ जाय तो उसे बदलते रहना। बदलनेका प्रयत्न करना कि यह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। इस प्रकार बारंबार उसे बदलते रहना और शास्त्रके अध्ययनमें चित्त लगाना। एकमें ही स्थिर न रहे तो गुरुदेवके, जिनेन्द्र देवके, श्रुतके विचारोंको बदलते रहना, एकमें चित्त स्थिर न रहे तो। ध्येय एक (होना चाहिये कि) मैं शुद्धात्माको कैसे पहचानूँ।
मुमुक्षुः- उलझन मिटनेका यह एक ही स्थान है?
समाधानः- गुरुदेवने बहुत मार्ग बताया है, परन्तु ग्रहण स्वयंको करना पडता है। अपूर्व रुचि अंतरमें जागे और गुरुदेवने कहा वह आशय ग्रहण हो तो अंतरमें पलटा हुए बिना रहे नहीं। शास्त्रमें आता है, तत्प्रति प्रीति चित्तेन, वार्तापि ही श्रुता। वह वार्ता भी अपूर्व रीत-से सुनी हो। गुरुदेवने जो वाणीमें (कहा), उनका जो आशय था (उसे ग्रहण करे) तो वह भावि निर्वाण भाजन है। परन्तु जो मुमुक्षु हो उसे ऐसे भी संतोष नहीं होता। मैं अंतरमें कैसे आगे बढूँ? जिसे रुचि जागृत हो, उसे आत्मा अंतरमें मिले नहीं तबतक संतोष नहीं होता। भले वार्ताकी अपूर्वता लगी, परन्तु स्वयंको अन्दर जो चाहिये वह प्राप्त न हो तबतक मुमुक्षुको संतोष नहीं होता।
जिसने गुरुदेवको ग्रहण किया, उनका आशय समझा वह भावि निर्वाण भाजनं। परन्तु मुमुक्षुको अंतरमें संतोष नहीं होता। जबतक अन्दर आत्म स्वरूप जो संतोषस्वरूप है, जो तृप्तस्वरूप है, जिसमें सब भरा है, ऐसा चैतन्यदेव प्रगट न हो तबतक उसे पुरुषार्थ होता नहीं, तबतक उसे शान्ति नहीं होता। और करनेका वह एक ही है। अभ्यास उसीका करना है, बारंबार उसका अभ्यास (करना)। मन्द पडे तो भी बारंबार उसका अभ्यास करना। बारंबार उस तरफ ही जाना है। अनादिका अभ्यास है इसलिये उस अभ्यासमें जाय तो भी अंतरमें तो स्वयंको ही पलटना है।
अंतरके अभ्यासको बढा दे और दूसरे अभ्यासको गौण करे तो अंतरमें-से प्रगट हुए बिना नहीं रहता। बारंबार मैं ज्ञायकदेव हूँ, ये विभाव मेरा स्वभाव ही नहीं है। ऐसे अंतरमें यदि स्वयं जाय, बारंबार ज्ञायकदेवका अभ्यास करे तो ज्ञायकदेव प्रगट हुए बिना नहीं रहता। उसका अभ्यास बारंबार छूट जाय, मन्द पड जाय तो भी बारंबार करता रहे। अनादिका अभ्यास है, पुरुषार्थकी मन्दता-से उसमें जुड जाय तो एकत्वबुद्धिको बारंबार तोडता रहे। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे बारंबार अभ्यास करता रहे। दिन और रात उसीका अभ्यास, उसके पीछे पडे तो वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता।