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मुमुक्षुः- .. वह स्वरूप सुननेको हम बहुत उत्सुक हुए हैं। तो कृपा करके विस्तार-से वह स्वरूप समझाइये।
समाधानः- आचार्यदेवने तो बहुत बताया है। आचार्यदेवकी तो क्या बात करनी। गुरुदेवने उसका रहस्य खोला। गुरुदेवने तो महान उपकार किया है। गुरुदेवने जो स्वानुभूतिकी बात प्रगट करी, पूरे हिन्दुस्तानके-भारतके जीवोंको जागृत किया है। गुरुदेवका परम- परम उपकार है। मैं तो गुरुदेवका दास हूँ। गुरुदेवने बहुत समझाया है। गुरुदेवने तो इस भरतक्षेत्रमें आकर महा-महा उपकार किया है। गुरुदेव तो कोई... उनकी वाणी अपूर्व थी। उनकी वाणीमें अकेला आत्मा ही दिखता था। वे आत्माका स्वरूप ही बताते थे। गुरुदेवका द्रव्य तीर्थंकरका द्रव्य था। और इस भरतक्षेत्रमें आकर महान-महान उपकार किया है।
आचार्यदेवकी तो क्या बात करनी? एकत्व-विभक्त आत्माका स्वरूप, आत्माका एकत्व और परसे विभक्त, ऐसे आत्माको जानना वही मुक्तिका मार्ग है। स्वरूप-से एकत्व है और विभाव-से विभक्त है, ऐसे आत्माको पहचानना। ऐसे आत्माको पहचाननेका जीवने प्रयत्न नहीं किया है। और आत्मामें ही सर्वस्व है। और जगतमें कोई वस्तु आश्चर्यभूत नहीं है। आश्चर्यभूत एक आत्मा ही है। अतः एक आत्माको ही ग्रहण करना। और उसे ही ग्रहण करनेका अभ्यास करना। वही जीवनमें कर्तव्य है।
आत्मा एकत्व शुद्धात्माको ग्रहण करनेका अभ्यास करना। प्रत्येक कार्यमें शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो? एक शुद्धात्माको ग्रहण करनेका अभ्यास करना। वह शुद्धात्मा ऐसा है। छः द्रव्यमें भी एक शुद्धात्मा, नव तत्त्वमें एक शुद्धात्मा, दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें एक शुद्धात्मा, हर जगह एक शुद्धात्माको ही ग्रहण करना। और वह पर-से विभक्ति, विभाव- से विभक्त है। भेदभावों-से भी वह भिन्न है। तो भी उसमें बीचमें साधकदशाकी पर्यायें आये बिना नहीं रहती। उसका ज्ञान करना।
शुद्धात्माको ग्रहण करके यथार्थ प्रतीति करनी। उसमें लीनता करने-से स्वानुभूति प्रगट होती है। और वह स्वानुभूति आत्माका निज वैभव है। और वह वैभव पहले आंशिकरूपसे प्राप्त होता है, बादमें पूर्ण वीतराग दशा हो तब पूर्ण वैभव प्रगट होता है।