आत्मा अनन्त-अनन्त शक्तियों-से भरा है। उसमें कोई अदभुत वैभव भरा है। वह वैभव तो जब स्वानुभूति होती है तब प्राप्त होता है। पहले बारंबार शुद्धात्माको ग्रहण करनेका अभ्यास करना। वही कर्तव्य है। आचार्यदेव कहते हैं कि भेदज्ञान ऐसे भाना कि अविच्छिन्न धारा-से भाना, ऐसा भेदज्ञान। शुद्धात्माका एकत्व और पर-से विभक्त। ऐसी भेदविज्ञानकी धारा स्वयंको ग्रहण करके, परसे विभक्त, ऐसी भेदज्ञानकी धारा ग्रहण करने-से अंतरमें आत्माका वैभव प्रगट होता है।
पहले सम्यग्दर्शन हो तो भी अभी लीनता करनी बाकी रहती है। चारित्रदशा बाकी रहती है। चारित्रदशामें तो मुनिराज क्षण-क्षणमें अंतर स्वानुभूतिमें बारंबार लीन होते हैं और लीनता बढते-बढते केवलज्ञान प्रगट होता है। आत्माकी विभूति कोई अदभुत है। आत्मा एक समयमें पहुँचनेवाला, स्वयं अपने क्षेत्रमें रहकर पूर्ण लोकालोकका ज्ञान, उस ओर उपयोग नहीं रखता, परन्तु सहज ज्ञात हो जाता है। ऐसा आत्माका वैभव अनन्त ज्ञानसागर, अनन्त आनन्दसागर-से भरा हुआ, ऐसी अनन्त शक्तियोंसे भरा हुआ आत्मा (है)। उस आत्माको ग्रहण करना, शुद्धात्माको ग्रहण करना। वही जीवनका कर्तव्य है। और गुरुदेवने वही बताया है। वही करनेका है।
बाह्य क्रियाकाण्डमें जीव अनन्त काल-से रुक गये हैं। गुरुदेवने अंतर दृष्टि बतायी। अंतर दृष्टि प्रगट करनी। एक शुद्धात्माको ग्रहण करना। ज्ञान सबका करना। और चारित्र- लीनता करनेका प्रयत्न (करना)। दृढ प्रतीति करके (उसमें लीनता करनी)। आत्मा स्वयं स्वरूपमें लीन हो जाय तो अशरण नहीं है, वह तो शरणरूप है। आचार्य देव कहते हैं कि बाहर-से सब छूट जाय तो अंतरमें किसका शरण है? आत्मा शरणरूप है। आत्मामें अनन्त विभूति भरी है। वह विभूति तुझे प्रगट शरणरूप, आश्चर्य करनेरूप, जगतमें आश्चर्य करनेरूप हो तो आत्मा ही है। बाकी बाहरका सब आश्यर्च छूट जाना चाहिये।
"रजकण के ऋद्धि वैमानिक देवनी, सर्वे मान्या पुदगल एक स्वभाव जो।' वैमानिक देवकी ऋद्धि भी पुदगलका स्वभाव है। जगतमें कोई भी वस्तु आश्चर्यभूत नहीं है। अदभुत वस्तु हो तो एक आत्मा ही है। ऐसी स्वभावकी महिमा, स्वभावका ज्ञान कर। पर- से विभक्त और स्व-से एकत्व, ऐसा यथार्थ ज्ञान करके, चारों पहलू-से ज्ञान करके ्र प्रतीति करनी। उसकी लीनता करनेका प्रयत्न करना, उसका अभ्यास करना। वही जीवनका कर्तव्य है और वही करने जैसा है। गुरुदेवने बताया है और वही बताया है। गुरुदेवका परम उपकार है। गुरुदेवने चारों तरफ-से स्पष्ट करके बताया। निज वैभव, अन्दरमें जाय तब निर्विकल्प स्वरूपमें निर्विकल्प परिणति जो प्रगट होती है, उसमें आत्माकी अनन्त विभूति है वह प्रगट होती है।