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मुमुक्षुः- ... और आपके मुख-से स्पष्टता भी बहुत हुयी। फिर भी बहुभागको ऐसा लगे कि करने जैसा है वह सरल भाषामें हमें समझमें ऐसी कोई बात कहीए, तो हम हमारा काम कर सके।
समाधानः- गुरुदेवने बहुत स्पष्ट और सरल करके बताया है। बहुत सूक्ष्मरूपसे भेद कर-करके बहुत स्पष्ट किया है। किसीको कहीं कोई भूल रहे ऐसा (नहीं है)। बरसों तक वाणी बरसायी है। गुरुदेवका तो अपूर्व उपकार है। उनका उपकार तो... उसकी अवेजमें कुछ देना महा असंभव है। उनका उपकार तो परम उपकार है।
गुरुदेवने कहा है कि एक आत्मतत्त्व चैतन्यतत्त्व भिन्न है उसे पहचानना। यह चैतन्यतत्त्व अनादिअनन्त शाश्वत है। अनन्त जन्म-मरण करते-करते जन्म-मरण हुए तो भी आत्मा तो ज्योंका त्यों शाश्वत ही है। वह आत्मा कैसे पहचानना, वह मार्ग गुरुदेवने बताया। सर्व-से भिन्न आत्मा (है)। शरीर-से भिन्न, विभावस्वभाव-विभावसे भिन्न, अन्दर जो चैतन्यतत्त्व है उसका स्वभाव भिन्न है। विभाव-से चैतन्यका स्वभाव भिन्न है। उसे पहचाननेका प्रयत्न करना और वह कोई अपूर्व और अनुपम वस्तु है। जगतमें कोई अनुपम नहीं है, एक आत्मा ही अनुपम है। उस अनुपम तत्त्वकी अंतरमें अपूर्वता लगे और गुरुदेवने ऐसी अपूर्व वाणी बरसायी है कि वह अपूर्व तत्त्व एकदम ग्रहण हो जाय।
उस अपूर्व तत्त्वके लिये रुचि, लगन, महिमा आदि सब करने जैसा है। वह कैसे पहचानमें आये उसके लिये। अंतर चैतन्य पर दृष्टि करके, गुणके भेद, पर्यायके भेद पडे लेकिन उसमें नहीं रुककर, एक शाश्वत चैतन्य पर दृष्टि करनी। सबका ज्ञान रखना। ज्ञान आत्मामें-से प्रगट होता है, सम्यग्दर्शन आत्मामें-से प्रगट होता है, चारित्र आत्मामें- से प्रगट होता है। आत्माका जो स्वभाव है उसहीमें-से प्रगट होता है, बाहर-से कुछ आता नहीं।
बाहर-से उसका साधन देव-गुरु-शास्त्र उसके साधन हैं। परन्तु गुरुदेवने बताया, तेरे चैतन्य पर दृष्टि कर तो उसमें-से सब प्रगट होता है। उसमें अनन्त भरा है। आत्माका ज्ञान स्वभाव अनन्त है। वह अनन्त, जिसका नाश न हो, ऐसा अनन्त स्वभाव, अपार स्वभाव आत्मामें है। आत्माका जो स्वभाव-ज्ञायक स्वभाव है, उसे पहचान। आनन्द उसमें भरा है। सब उसमें ही भरा है और उसमें-से ही प्रगट हो ऐसा है। बारंबार उसीका अभ्यास करने जैसा है। उसका रटन, उसका मनन, सब वही करने जैसा है।
एक चैतन्य कैसे पहचानमें आये? जागते-सोते, स्वप्नमें एक चैतन्य-चैतन्यकी पहचान कैसे हो? ऐसी भावना और बारंबार वही करने जैसा है। बाकी जगतमें कुछ भी सर्वस्व नहीं है। शुभभावनामें एक देव-गुरु-शास्त्र और अन्दर शुद्धात्माका ध्येय। वही जीवनमें होना चाहिये, बाकी सबकुछ गौण है। उसके साथ कोई प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन एक