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आत्माके साथ होता है, अन्य किसीके साथ प्रयोजन नहीं है। एक देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन और अन्दर शुद्धात्माका प्रयोजन, यह एक प्रयोजन रखने जैसा है, बाकी कुछ रखने जैसा नहीं है।
गुरुदेवने जो उपाय है वह एकदम सरल करके बताया है। बाह्य क्रियामें बाहरमें कहीं भी धर्म नहीं है। धर्म जिसमें है उसमें-से ही प्रगट होता है। स्वभावमें-से स्वभाव प्रगट होता है। बाहर विभावमें-से नहीं आता है, स्वभावमें-से स्वभाव आता है। जिसका जो स्वभाव हो, उसमें-से ही प्रगट होता है।
पानी स्वभाव-से शीतल है, परन्तु अग्निके निमित्त-से उसमें उष्णता दिखती है। परन्तु निमित्तके संंयोग-से उसमें ऐसी उष्णताकी परिणति होती है। वैसे आत्मा स्वयं स्वभाव-से शीतल चैतन्य शीतलता-से भरा है। विभावके निमित्त-से, परका निमित्त है इसलिये उसमें अनेक जातकी राग-द्वेष आदि कालिमा दिखती है। परन्तु अंतर दृष्टि करे तो वह शीतल स्वभाव-से भरा है।
जितना ज्ञानस्वभाव आत्मा है उतना ही स्वयं है। उसके अलावा सबकुछ उससे भिन्न है। ऐसा आत्माका स्वभाव, चैतन्यका स्वभाव ग्रहण कर लेना। सूक्ष्म उपयोग करके आत्माको ग्रहण करना, वही करने जैसा है। उसमें ही आनन्द, उसमें ही सुख, सब उसमें ही भरा है।
मुमुक्षुः- अन्दरमें जाय तो अकेला शुद्धात्मा और बाहर आये तो देव-शास्त्र- गुरु, दोनोंको खडा रखा।
समाधानः- हाँ, बस, दोको खडा रखा। बाकी किसीके साथ कुछ प्रयोजन नहीं है। दूसरा सब तो लौकिक है, लौकिक चलता रहे। बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र। जिनेन्द्र जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं। गुरुदेव सर्वोत्कृष्ट और शास्त्र सर्वोत्कृष्ट हैं। वह श्रुतका चिंतवन। बाकी अंतरमें एक शुद्धात्मा सर्वोत्कृष्ट, वह सर्वोत्कृष्ट है। बाकी किसीके साथ कोई प्रयोजन नहीं है।
आचार्यदेव कहते हैं न? मुझे किसीके साथ प्रयोजन ना रहे। एक आत्मा और मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ वहाँ देव-गुरु-शास्त्र। आलोचना पाठमें (कहते हैं कि), मेरे गुरुने मेरे हृदयमें जो उपदेशकी जमावट की है, उस जमावटके आगे इस पृथ्वीका राज मुझे प्रिय नहीं है। पृथ्वीका राज तो नहीं है, परन्तु तीन लोकका राज मुझे प्रिय नहीं है। एक गुरुका उपदेश। वही मेरे हृदयमें, उपदेशकी जमावट है। उस उपदेश अनुसार मेरी परिणति हो जाय, बस। गुरुदेवने ऐसी उपदेशकी जमावट (की है), उतनी वाणी बरसायी है। उस उपदेशकी जमावटको स्वयं परिणतिमें प्रगट करे तो उसमें सब आ जाता है। उसके आगे पृथ्वीका राज या तीन लोकका राज, आचार्यदेव कहते हैं कि, मुझे कुछ