५८ नहीं चाहिये।
मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रका विवेक कौन-से गुणस्थान तक रहता होगा?
समाधानः- आखिर तक रहता है। मुनिओंको देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन रहता है। बुद्धिपूर्वकमें छठवें (तक और) सातवें गुणस्थानमें अबुद्धिपूर्वक हो जाता है। सातवें- से आठवें, नौंवेमें अबुद्धिपूर्वक (होता है)। वीतराग दशा होती है बादमें छूट जाता है। तबतक रहता है।
देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन, जिसे आत्माकी रुचि हो, रुचिवालेको देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन होता है। सम्यग्दर्शनमें भी देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन होता है। और चारित्र दशा मुनिको प्रगट हो तो भी उसे देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन होता है। महाव्रत और अणुव्रत, श्रावकोंको अणुव्रत और मुनिओंको महाव्रत (होते हैं)। तो उसके साथ भी देव-गुरु- शास्त्रका प्रयोजन होता है।
आचार्यदेव प्रवचनसारमें कहते हैं, मैं जो दीक्षा लूँ, उसके साथ पंच परमेष्ठी भगवंत मेरे साथ रहना। मैं आप सबको बुलाता हूँ, आप मेरे साथ रहना। आचार्य भी ऐसा ही कहते हैं। मुनिओं और आचार्य भी देव-गुरु-शास्त्रको साथ ही रखते हैं। अंतर छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुले तो भी उन्हें शुभभावनामें देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। उनकी भावनामें होते हैं। बाहरका संयोग (न भी हो, परन्तु) उनकी भावनामें ऐसा होता है कि देव-गुरु-शास्त्र मेरे साथ रहना। ऐसा कहते हैं। तो सम्यग्दर्शनमें तो होते ही हैं और रुचिवालेको भी होते हैं।
मुमुक्षुः- सब परमात्माको युगपद और एक-एकको, प्रत्येकको-प्रत्येकको नमस्कार किये हैं।
समाधानः- हाँ, प्रत्येक-प्रत्येकको, युगपदको। प्रत्येक-प्रत्येक, भिन्न-भिन्न। सबको साथमें और सबको भिन्न-भिन्न नमस्कार करता हूँ। ऐसी आचार्यदेवको अंतरमें भक्ति आ गयी है। छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं तो भी।
मुमुक्षुः- साधककी भूमिकामें, आपके बोलमें तो लिया है कि ज्ञान एवं वैराग्य साथमें होते हैं। ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि सब साथमें लेते हो।
समाधानः- सब साथमें होता है।
मुमुक्षुः- सब साधकोंको सब साथमें होता है?
समाधानः- प्रत्येक साधकको साथमें होता है। प्रारंभमें ज्ञान, वैराग्य, विभाव- से विरक्ति, स्वभावका यथार्थ ज्ञान करके ग्रहण करना। दृष्टि, ज्ञान और विरक्ति, उसके साथ भक्ति भी होती है। शुभभावनामें उसे भक्ति होती है। जिसने जो प्रगट किया, सर्वोत्कृष्टि जिसने वीतराग दशा प्रगट की, उसका स्वयंको आदर है। उन पर उसे आदर