Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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आता है। गुरु जो साधना करते हैं, उन पर उसे आदर है। और शास्त्रमें जो मार्ग बताया है, उन सब पर उसे आदर रहता है। उसे शुभभावनामें रहता है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी साधना, गुरुदेवकी साधनाभूमि..?

समाधानः- सब पर भाव रहता है। भगवंतोंने जो साधना करी, वह साधना। भगवान, गुरु और शास्त्र सब पर (भाव रहता है)। जहाँ वे रहे, जहाँ उन्होंने साधना की, उन सब पर भाव रहता है। जैसे तीर्थक्षेत्र हैं, जहाँ-से तीर्थंकर मोक्ष पधारे, उसे तीर्थक्षेत्र कहते हैं कि जहाँ उन्होंने केवलज्ञान प्रगट किया, जहाँ-से निर्वाणको प्राप्त हुए, वह सब तीर्थक्षेत्र सम्मेदशीखर आदि कहनेमें आते हैं।

इस पंचमकालमें गुरुदेव सर्वस्व थे। गुरुदेवने इस पंचमकालमें पधारकर उन्होंने जो मार्ग बताया, वे गुरु जहाँ विराजे, उन्होंने जहाँ साधना करी, वह भूमि भी वंदनीय है। वह भी आदरने योग्य है। वह सब। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका सबका उसे आदर होता है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनके बिना सब (शून्य है), तो सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं? और उसे गृहस्थ दशामें संसारमें मग्न जीव क्या सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं?

समाधानः- सम्यग्दर्शनके बिना बाहरका बहुत किया। क्रियाएँ करे, बाहरका आत्माको पहचाने बिना सब करे, बिना अंकके शून्य हैं। मूलको पहचानता नहीं है। वस्तु कौन है? आत्मा कौन है? मोक्ष किसका करनेका है? क्या है? सबको पहचाने बिना बाहरका अनन्त काल बहुत किया। व्रत लिये, मुनिपना लिया, सब लिया परन्तु अंतर आत्माको पहचाना नहीं तो बाहरकी क्रिया, मात्र शुभभाव किये तो पुण्यबन्ध हुआ। परन्तु आत्माको पहचाने बिना आत्माकी मुक्ति नहीं होती और स्वानुभूति सम्यग्दर्शन बिना सब व्यर्थ है।

मुक्ति तो अंतर आत्मामें ही होती है। कहीं बाहर जाय इसलिये मोक्ष हो, ऐसा नहीं है। अंतर आत्मा मुक्त स्वभाव है उसे पहचाने, उसे भिन्न करे। उसका भेदज्ञान करे तो उसकी मुक्ति होती है। और सम्यग्दर्शन भी वही है। भेदज्ञान करके आत्माकी स्वानुभूति हो वही सम्यग्दर्शन है। स्थूलपने माने कि नौ तत्त्वकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। नौ तत्त्वकी श्रद्धा अर्थात आत्माकी पहचान करनी चाहिये। ऐसे भेद-भेद करके विकल्प- से आत्माको पहचाने ऐसा नहीं। ये जीव, ये अजीव, आस्रव, संवर, बन्ध (ऐसे नहीं)। मूल आत्माका स्वभाव पहचानना चाहिये।

आत्मा कौन है? एक अभेद चैतन्यतत्त्व है। अनन्त गुण-से भरा आत्मा, उसे विभाव- से भिन्न, शरीर-से भिन्न, सब-से भिन्न एक आत्मा है। विभाव, विकल्प जो है वह भी आत्माका स्वभाव नहीं है। उससे भी आत्मा भिन्न है। वह ज्ञानस्वभाव-ज्ञायक स्वभाव आत्मा है, उसे भिन्न करके उसका भेदज्ञान करे। और अंतरमें विकल्प रहित निर्विकल्प