६० तत्त्व आत्मा है, उसकी स्वानुभूति हो वह सम्यग्दर्शन है। और वह सम्यग्दर्शनकी श्रद्धा, सम्यग्दर्शनकी श्रद्धा उतना ही नहीं परन्तु उसकी स्वानुभूति-आत्माकी स्वानुभूति वह सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन हो, फिर उसमें लीनता बढती जाय तो उसमें केवलज्ञान प्रगट होता है।
सम्यग्दर्शन अर्थात आत्माकी स्वानुभूति। जैसा आत्मा है वैसा अनुभव हो, स्वानुभूति हो, आत्मदर्शन हो उसका नाम सम्यग्दर्शन। आत्मदर्शन बिना बाहरका सब करे उसमें पुण्यबन्ध होता है, देवलोक हो, परन्तु भवका अभाव नहीं होता। इसलिये सम्यग्दर्शन ही मुक्तिका उपाय है। आत्माकी स्वानुभूति हो, आत्माका दर्शन हो, वह प्रगट हो तो ही मुक्ति हो, अन्यथा आत्माको पहचाने बिना मुक्ति होती नहीं।
भेदज्ञान करे कि मैं भिन्न हूँ। मैं चैतन्य भिन्न हूँ, ये सब मेरे-से भिन्न है। मैं भिन्न हूँ, ऐसा भेदज्ञान करके अंतरमें जो स्वानुभूति हो वही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन बिना जीव अनन्त काल रखडा है।