मुमुक्षुः- शून्य क्या? एक अंक तो हुआ ही नहीं है। फिर ऊपरके शून्य क्या है? सब शून्य व्यर्थ हैं। बिना एकके सब शून्य व्यर्थ है, उसका अर्थ क्या?
समाधानः- मूल एक तो सम्यग्दर्शन है। वह यदि हो तो ही यथार्थ है। शून्य अर्थात मात्र शून्य ही हुए। मूल जो वस्तु है उसकी पहचान नहीं की और अकेले शुभभाव किये, पुण्यबन्ध हुआ। आत्माका स्वभाव तो पहचानाच नहीं। इसलिये जो अंतरमें आत्माकी प्राप्ति होनी चाहिये वह तो होती नहीं। मात्र शून्य-ऊपरके शुभभावरूप शून्य किये। बिना एकके शून्य। बिना एकके शून्य किये तो उसे एक नहीं कहते, वह तो मात्र शून्य है। वह गिनतीमें नहीं आता।
एक हो तो उसके ऊपर शून्य लगाओ तो गिनतीमें आता है। बाकी अकेले शून्य गिनतीमें नहीं आते। वैसे शुभभाव किये, पुण्यबन्ध (हुआ), देवलोक हुआ। परन्तु आत्माकी पहचान, जो स्वानुभूति होनी चाहिये, वह आत्मा प्रगट नहीं हुआ तबतक सब शून्य हैं। आत्मा प्रगट हो तो ही वह यथार्थ है और तो ही मुक्ति होती है। आत्माकी पहचान बिना कहीं मुक्ति नहीं होती।
सम्यग्दर्शन होता है तो आंशिक मुक्ति होती है। फिर आगे बढे तो अन्दर चारित्र- लीनता बढती जाय। बाहर-से चारित्र आये ऐसा नहीं, अंतरमें लीनता बढती जाय तो वीतराग दशा और केवलज्ञान प्रगट होता है। बाहर-से त्याग किया, वैराग्य किया, परन्तु आत्माको पहचाना नहीं। आत्माको पहचाने बिना सब बिना एक अंकके शून्य जैसा है। मूलको पहचाना नहीं। वृक्षकी डाली, पत्ते सब इकट्ठा किया, परन्तु मूल जो है, उस मूलमें पानी नहीं डाला। तो वृक्ष पनपता नहीं।
मूल जो है, मूल चैतन्य स्वभाव-चैतन्य है उसे पहचानकर उसमें ज्ञान-वैराग्य प्रगट हो तो ही आत्मामें-से ज्ञान एवं चारित्र सब आत्मामें-से प्रगट होते हैं। बाहर-से प्रगट नहीं होता। अतः मूलको पहचाने बिना पानी पिलाना, उसमें वृक्ष पनपता नहीं। सब ऊपरके डाली-पत्ते ही हैं। डाली-पत्तेको पानी पीलाने-से वृक्ष नहीं होता, मूलको पीलाने- से होता है। बीज जो बोया, बीजको पानी पीलाने-से होता है। परन्तु बाहर ऊपर- से पानी पीलाये, सिर्फ पानी पीलाता रहे तो कहीं वृक्ष पनपता नहीं। अन्दर भेदज्ञान