Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

६२ करे तो आत्मा ज्ञानस्वभाव (है)।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- हाँ। आनन्दादि सब आत्मामें-से प्रगट होता है। सम्यग्दर्शन हो इसलिये आत्माकी स्वानुभूति (होती है)। आत्माका ज्ञान, आत्माका आनन्द, आत्माके अनन्त गुणका वेदन जिसमें होता है। सुख, जो अनन्त सुख (प्रगट होता है), जगतके कोई पदार्थमें सुख नहीं है, ऐसा अनुपम सुख आत्मामें है। बाहरका सुख उसने कल्पितरूप- से माना है। वह तो आकुलता-से भरे हैं। अंतरका जो आत्माका सुख वह कोई अनुपम है। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडता। ऐसा अनुपम सुख और आनन्द आत्मामें-से प्रगट होता है, वह सम्यग्दर्शनमें प्रगट होता है। वह बाहर-से नहीं आता।

मुमुक्षुः- भगवान-भगवान कहकर संबोधन करते थे। तो भगवान बनने-से पहले भगवान कहकर क्यों संबोधन करते होंगे?

समाधानः- भगवानस्वरूप ही आत्मा है। आत्मा अनादिअनन्त स्वभाव-शक्ति अपेक्षा- से भगवान ही है। प्रगट होता है अर्थात उसकी पर्याय प्रगट होती है। बाकी वस्तु अपेक्षा-से आत्मा भगवान ही है। भगवानका स्वभाव है। उसकी शक्तिका नाश नहीं हुआ है। अनन्त काल गया तो भी उसमें अनन्त शक्तियाँ, ज्ञानादि अनन्त गुण उसमें भरे हैं, उसका नाश नहीं हुआ है। इसलिये आत्मा भगवान है, उसे तू पहचान। तू स्वयं शक्ति अपेक्षा-से भगवान ही है, ऐसा गुरुदेव कहते थे।

उस भगवानको तू भूल गया है, उसे तू पहचान। उसमें तू जा, उसमें लीनता कर, उसकी श्रद्धा कर-प्रतीत कर, ज्ञान कर तो वह प्रगट होगा, ऐसा कहते थे। वह प्रगह होता है, वह प्रगट भगवान होता है। बाकी शक्ति अपेक्षा-से तू भगवान ही है।

मुमुक्षुः- बिना पढे, अनपढ आदमीको भी सम्यग्दर्शन हो सकता है?

समाधानः- उसमें कहीं बाहरकी पढाईकी आवश्यकता नहीं है या ज्यादा जाने या ज्यादा शास्त्रोंका अभ्यास करे या उसे ज्यादा पढाई हो तो हो, ऐसा कुछ नहीं है। मूल आत्माका स्वभाव पहचाने कि मैं ज्ञानस्वभाव ज्ञायक हूँ और ये सब मुझ- से भिन्न है। ऐसा भेदज्ञान करके आत्माको पहचाने, मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचाने तो उसमें पढाई कोई आवश्यकता नहीं है।

मूल वस्तु स्वभावको अंतरमें-से पहचानना चाहिये। उसकी रुचि, उसकी महिमा, उसकी लगन अंतरमें लगे और विभावमें कहीं चैन पडे नहीं, बाहरमें (चैन) पडे नहीं। ऐसी लगनी और महिमा यदि आत्मामें लगे तो अपने स्वभावको पहचानकर अंतरमें जाय तो उसे बाह्य पढाईकी आवश्यकता नहीं है।

शिवभूति मुनि कुछ नहीं जानते थे। गुरुने कहा, मारुष और मातुष। तो शब्द भूल