६४ भी देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा होती है। मुनिराज होते हैं, छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूति और अंतर्मुहूर्तमें बाहर (आते हैं), ऐसी दशा होती है। तो भी उन्हें शुभभावना (आती है)। अभी न्यूनता है तो देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा मुनिराजको भी होती है। परन्तु उस पर वे विश्वास नहीं करते हैं कि इसमें धर्म होता है। धर्म मेरे स्वभावमें, स्वानुभूतिमें धर्म रहा है, स्वभावमें धर्म रहा है। परन्तु शुभभाव तो... देव-गुरु-शास्त्र तो साथ ही रहते हैं। देव-गुरु-शास्त्रकी भावना उसे साथमें रहती है, परन्तु पुरुषार्थ स्वयं-से करता है।
मुनिराज कहते हैं, मैं आत्मामें जा रहा हूँ। मैं दीक्षा लेता हूँ। उसमें सब पधारना। पंच परमेष्ठी भगवंतों मैं आप सबको निमंत्रण देता हूँ। मैं पुरुषार्थ करुँ उसमें मेरे साथ रहना। ऐसी शुभभावना आती है। परन्तु वीतराग दशाकी परिणति-से मुझे धर्म होता है, ऐसी मान्यता है। परन्तु भावना ऐसी आती है। उनकी लीनता, उनकी श्रद्धाकी परिणति तो विशेष है, मुनिराजकी। सम्यग्दर्शन है और स्वानुभूतिकी दशा क्षण-क्षणमें अंतर्मुहूर्तमें लीन होते हैं और अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं। तो भी शुभभावना ऐसी होती है।
मुमुक्षुः- सर्वज्ञकी स्थापना की है। जैनकुलमें जन्म लिया इसलिये सर्वको माने बिना भी नहीं चलता है। परन्तु सर्वज्ञको कैसे बिठाना, वही ख्यालमें नहीं आता है। आपने तो देखे हैं, तो कुछ..?
समाधानः- स्वयंको नक्की करना चाहिये। सर्वज्ञ तो जगतमें होते हैं। सर्वज्ञ स्वभाव आत्माका है। पूर्ण दशा जिसे प्रगट हो, उसे सर्वज्ञ-पूर्ण ज्ञान प्रगट हुए बिना नहीं रहता। पूर्ण साधना जो करे, ज्ञानस्वभावी आत्मा है। वह ज्ञान ऐसा है कि जो अनन्तको जाने। ज्ञानमें कहीं अपूर्णता नहीं होती कि इतना ही जाने और इतना न जाने, ऐसा तो नहीं होता।
यह ज्ञायक स्वभाव आत्मा पूर्णता-से भरा है। जिसे पूर्ण साधना प्रगट हुयी और पूर्ण कृतकृत्य दशा हो, उसकी ज्ञानदशा पूर्ण हो जाती है, उसमें कोई अल्पता नहीं रहती। एक समयमें लोकालोकको जाने, ऐसी साधना करते-करते ऐसी वीतराग दशा प्रगट हो, उसमें पूर्ण दशा प्रगट होती है कि जो सर्वज्ञता (है)। एक समयमें लोकालोकको जानते हैं। स्वयंको जानते हैं और अन्यको। अनन्त द्रव्यको, अनन्त आत्माको, अनन्त पुदगलको, उनका भूत-वर्तमान-भविष्य सबको एक समयमें सबको जाने, ऐसा ही ज्ञानका कोई अपूर्व अचिंत्य सामर्थ्य है।
ऐसी सर्वज्ञता जगतमें होती है और ऐसा सर्वज्ञ स्वभाव जिसे प्रगट हुआ है, ऐसे महाविदेह क्षेत्रमें तीर्थंकर भगवंत, केवली भगवान विचरते हैं। अभी इस पंचकालमें सर्वज्ञता देखनेमें नहीं आती। बाकी महाविदेह क्षेत्रमें साक्षात तीर्थंकर भगवान, सीमंधर भगवान