Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

८२ उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- कोई बार माताजी! (ऐसा लगता है कि) शुरुआतमें गुरुदेवको सुनते तो तब अत्यन्त आनन्द और उल्लासपूर्वक (सुनते थे)। उसके बाद इतने निर्लज हो गये हैं। एक बार निर्लज्ज हो जानेके बाद वह शब्द असर नहीं करते। ऐसी स्थिति हो गयी हो ऐसा लगता है। वही शब्द बार-बार सुनते हो, इसलिये पहले वही शब्द सुनते वक्त जो अपूर्वता लगती थी, (वह अपूर्वता नहीं लगती है)।

समाधानः- अपूर्वता लगती थी। अपना पुरुषार्थ उतना चलता नहीं, इसलिये ऐसा हो कि सुनते रहते हैं। पुरुषार्थ आगे गति करे नहीं, इसलिये ऐसा हो जाता है कि पहले सुनते वक्त एकदम आश्चर्य लगनेके बजाय मध्यम जैसा हो जाता है।

मुमुक्षुः- उसका मतलब यह है कि सुनते ही उसका पुरुषार्थ अन्दर चालू रहे तो उस जातकी अपूर्वता लगे और अपूर्वता-से विशेष उल्लास आये।

समाधानः- विशेष उल्लास आये। अपना पुरुषार्थ आगे नहीं बढता है, इसलिये वह मध्यम प्रकार-से सुनता रहता है। ऐसा हो जाता है।

मुमुक्षुः- प्रत्येक समय सुनते वक्त आश्चर्यचकित हो जाय, तो ऐसा कहा जाय कि इसमें नवीन-नवीन (लगता है)।

समाधानः- तो अपनी विशेष तैयारी होनेका कारण बने। पुरुषार्थ अधिक जागृत होता है।

मुमुक्षुः- आपने कहा न कि आशय नहीं ग्रहण किया। सुनने पर भी उसका आशय ग्रहण नहीं करता है।

समाधानः- उन्हें गहराईमें क्या कहना है? या गुरुेदव क्या कहते हैं? वह आशय ग्रहण करके फिर प्रयत्न नहीं किया है। पहले तो वह आशय ग्रहण नहीं करता है। आशय ग्रहण करके फिर जो पुरुषार्थ अपना चलना चाहिये, वह पुरुषार्थ उठता नहीं। गुरुदेवने मार्ग बताया कि मार्ग यह है। उसे बुद्धिमें ग्रहण हुआ, परन्तु अंतरमें उसे ऊतारकर आगे बढना चाहिये, वह आगे नहीं बढता। तो ऐसे ही मध्यममें खडा रहता है। जिस जातकी रुचि है उसमें विशेष आगे नहीं बढता है, इसलिये ऐसे ही खडा रहता है।

अनादि काल-से तो कुछ सुनने नहीं मिला। कोई बार मिला तो उसने ग्रहण नहीं किया। और ग्रहण करे तो पुरुषार्थ नहीं करता है। आशय ग्रहण करे तो भी आगे नहीं बढता। उसे बुद्धिमें ऐसा नक्की होता है कि गुरुदेवने यह मार्ग कहा है। विकल्प-से आत्मा भिन्न है, आत्मा शाश्वत है, आत्माका स्वभाव इस विभाव-से भिन्न है। गुणभेद, पर्यायभेद वह भेद भी वास्तविकरूप-से आत्मामें नहीं है। वह तो अखण्ड स्वरूप है। ये सब लक्षणभेद है। ऐसा बुद्धिमें ग्रहण करता है, परन्तु अंतरमें जो परिणति