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करनी चाहिये वह नहीं करता है। मात्र बुद्धि-से निर्णय करता है। आगे नहीं बढता। उसे उतनेमें संतोष हो जाता है कि करेंगे-करेंगे, ऐसा अन्दर प्रमादभाव रहता है, इसलिये आगे नहीं बढता।
मुमुक्षुः- वह अपूर्वता पूरी-पूरी भासित नहीं हुयी है।
समाधानः- वास्तवमें ऐसा ले सकते हैं। परन्तु उसे स्थूल दृष्टि-से अपूर्वता लगे तो भी पुरुषार्थ नहीं करता है। और यदि सच्ची अपूर्वता लगे तो उसे चैन पडे नहीं कि ये सब अपूर्व नहीं है, परन्तु अंतरमें अपूर्व है। इसप्रकार वास्तविक अंतरमें ज्यादा दृढ हो तो ज्यादा आगे बढे। स्थूलरूप-से ऐसा कह सकते हैं कि उसे अपूर्वता भासी है, परन्तु पुरुषार्थ नहीं करता है। बुद्धि-से निर्णय किया वह भी सत्य निर्णय कब कहा जाय? कि परिणति हो तो। परन्तु पहले उसने अमुक प्रकार-से निर्णय किया है, जिज्ञासाकी भूमिका अनुसार।
मुमुक्षुः- सच्चा निर्णय भावभासनरूप नहीं होता है। सच्चा निर्णय यानी कि मैं ज्ञायकमात्र हूँ, ऐसा हो जाना चाहिये, उसमें भावभासनरूप जिस प्रकार होना चाहिये कि ये चैतन्य सो मैं, ऐसा (नहीं होता है)।
समाधानः- सच्चा निर्णय होवे तो अन्दर परिणति हुए बिना नहीं रहती। वह बुद्धि-से निर्णय (करता है)। और अपूर्वता बुद्धि-से लगती है। अन्दर सचमूचमें अपूर्वता लगे तो वह उसे प्रगट हुए बिना नहीं रहता। अंतरमें भावभासन हो तो उसकी परिणति प्रगट हुए बिना नहीं रहती।
मुमुक्षुः- इतने पुरुषार्थ पर्यंत भी नहीं पहुँचता है।
समाधानः- पुरुषार्त पर्यंत नहीं पहुँचता है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! आपने वचनामृतमें ४७ नंबरके बोलमें एक दृष्टान्त दिया है कि "मकडी अपनी लारमें बँधी है वह छूटना चाहे तो छूट सकती है, जैसे घरमें रहनेवाला मनुष्य अनेक कायामें, उपाधियोंमे, जंजालमें फँसा है परन्तु मनुष्यरूपसे छूटा है'। इस दृष्टान्त पर-से सिद्धान्त जो आपने कहा कि त्रिकाली ध्रुव द्रव्य कभी बँधा नहीं है। यह दृष्टान्त ही समझमें नहीं आ रहा है। मनुष्यरूप-से छूटा है और उपाधिमें बँधा है, इसमें कैसे ऊतारना?
समाधानः- दृष्टान्त सर्व प्रकार-से लागू नहीं पडता। उसका आशय ग्रहण करना। मनुष्य तो एकदम छूटा है। उपाधिमें बँधा है, वह दृष्टान्त तो स्थूल है। बाहर-से बँधा है, अन्यथा नहीं बँधा है। दृष्टान्त यहाँ तक सीमित है कि चैतन्यद्रव्य वास्तविकरूप- से परद्रव्यके साथ बँधा नहीं है। द्रव्य अपेक्षासे छूटा ही है। चैतन्यद्रव्य इस पुदगलद्रव्यके साथ बँधनमें नहीं आया है। पुदगल तो जड है और स्वयं चैतन्य है। चैतन्य चैतन्यरूप-