८४ से छूटा है और पुदगल पुदगलरूप-से छूटा है। दोनों भिन्न द्रव्य हैं। फिर भी स्वयं भ्रमणा-से विकल्पकी परिणतिमें मान लिया है कि मैं बँध गया हूँ। मैं शरीररूप हो गया, मैं विकल्परूप हो गया, ऐसा स्वयंने मान लिया है। परन्तु वास्तविक द्रव्य कहीं परद्रव्यरूप नहीं हुआ है, भिन्न है।
भिन्न है, उस भिन्नको तू भिन्न जान ले। और जो कल्पना हो गयी है कि मैं इसमें बँध गया हूँ, शरीररूप हो गया, विकल्परूप हो गया, ऐसा हो गया, उसमें- से तेरी मान्यता-भ्रमणा छोडकर, तू भिन्न ही है, उस भिन्नको ग्रहण कर ले। भिन्न है वह बंधनमें आ गया हो तो उसे बंधन कैसे तोडुँ ऐसा हो, लेकिन तू वास्तविकरूप- से बँधा ही नहीं है। इसलिये तू भिन्न ही है। ऐसा आशय उसमें-से ग्रहण करना।
तू वास्तविकरूप-से भिन्न है। भिन्नको भिन्नरूप ग्रहण कर। परिणतिमें बन्धनमें ऐसी भ्रमणा-से उसकी मान्यता ऐसी हो गयी है। इसलिये तेरी मान्यताको बदल दे कि मैं छूटा हूँ। ये जो परिणति होती है विभावमें, लेकिन उस विभाव तरफ दृष्टि नहीं देकर मैं भिन्न हूँ, उसे ग्रहण करना। पर्यायमें जो परिणति हो, उस पर्यायको गौण करके मैं द्रव्य अपेक्षा-से भिन्न हूँ, ऐसे ग्रहण कर ले।
मकडी मकडीरूप-से भिन्न है। तेरी पर्यायकी जो परिणति हो... परन्तु द्रव्य अपेक्षा- से तू भिन्न ही है। इसलिये द्रव्यको ग्रहण कर। द्रव्य न्यारा है, इतना उसमें साबित करना है। तू स्वयं भिन्न है। अतः तू भिन्नको ग्रहण कर ले। तू बँधा नहीं है। तू मुक्त ही है तो मुक्तको ग्रहण कर ले। ऐसा कहना है।
मनुष्यरूप-से बँधा और छूटा, वह स्थूल है। परन्तु कहना यह है कि तू द्रव्य रूप-से भिन्न है। आत्माने अनादि काल-से चाहे जितने भव किये, चाहे सो विभाव हुए, तो भी तू तो द्रव्यरूप-से शुद्धात्मा भिन्न ही है, इसलिये तू उसे ग्रहण कर। उस ओर देख तो तू द्रव्यदृष्टि-से भिन्न है। मैं बँध गया, बँध गया (मानता है)। खँभेको गले लगाकर कहता है, मुझे छोड। तूने ही उसे ग्रहण किया है, तू छोड दे। वैसे स्वयंने परिणति-पर्यायकी परिणतिमें भ्रमणा-से, अपनी परिणति पुरुषार्थकी मन्दता-से विभावकी परिणति स्वयंने की है। अब तू मुझे छोड। परन्तु तू छूटा ही है, तू छोड दे। तेरी एकत्वबुद्धिको तू ही तोड दे तो तू छूटा ही है।
एक दृष्टि बदलनेमें वह दृष्टि नहीं बदल सकता है। उसमें बाहर-से कुछ करना नहीं है। उसे दूसरे किसी भी प्रकारकी महेनत नहीं है। परन्तु अन्दर स्थूलतामें-से सूक्ष्म उपयोग करके अन्दर दृष्टि बदलनेमें उसे इतनी दिक्कत हो जाती है। स्थूल उपयोग हो गया है। स्थूल परिणतिमें उसे सब ग्रहण होता है। विकल्प, शरीर आदि। उसमें-से सूक्ष्म दृष्टि करके दिशा बदलनेमें उसे मुश्किल हो जाता है। बाहरका सब करने जाता