८६ प्रयोग किस कहते हैं? जो प्रतीत हो उसके साथ, जो यथार्थ प्रतीत हो उसके साथ अमुक जातकी परिणति तो साथमें होती है। स्वरूपाचरण चारित्र साथमें होता है। उसे चारित्रमें गिना नहीं जाता। विशेष लीनता हो उसे चारित्र कहते हैं। इसलिये यह श्रद्धाका ही प्रयोग है। अन्दर परिणति प्रगट करनी वह श्रद्धाकी परिणति प्रगट करनी है।
श्रद्धा अर्थात यथार्थ जो आत्माका स्वरूप है, उसकी अन्दर यथार्थ परिणति, ज्ञायककी ज्ञायकरूप परिणति कैसे प्रगट हो, वह श्रद्धाकी ही परिणति है-प्रतीतकी परिणति है। उस प्रतीतके साथ अमुक जातकी लीनता साथमें होती है। उसे चारित्रकी कोटिमें नहीं कहते हैं।
मुमुक्षुः- श्रद्धाका ऐसा प्रयोग है। समाधानः- हाँ, ऐसा प्रयोग है। मुमुक्षुः- दृढता बढती जाती हो। समाधानः- हाँ, दृढ कर कि मैं चैतन्य ही हूँ, यह मैं नहीं हूँ। इस प्रकार उसकी दृढता करनी।