१६८ साथ ही ग्रहण हो जाता है?
समाधानः- एक साथ ग्रहण हो जाता है। स्थूल है इसलिये उसे... वास्तविक भेद नहीं है। संज्ञा भेद है, कार्य भेद है, ऐसा है। आनन्दका कार्य, जाननेका कार्य, ऐसे है। वस्तु भेद नहीं है।
..यथार्थपने यदि लक्षण ग्रहण हो तो लक्ष्य और लक्षण दोनों साथमें ही ग्रहण हो जाते हैं। जो पहले सीधा द्रव्यको नहीं पहचानता है उसे ऐसा कहनेमें आता है, तू लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचान। कैसे पहचानना? ऐसा कहे तो जानने वालेका लक्षण दिखता है, वह जानने वाला है वही मैं हूँ। उस लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचान ले, ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु वह लक्षण यथार्थपने पहचाने उसे खडा नहीं रहना पडता कि यह लक्षण और यह लक्ष्य। ऐसे उसे भिन्न करके ग्रहण नहीं करना पडता। लक्षण ग्रहण करे उसके साथ ही उसे लक्ष्य ग्रहण हो जाता है। यथार्थपने लक्षण ग्रहण करे तो उसका लक्ष्य द्रव्य साथमें ही ग्रहण हो जाता है। पहले लक्षण ग्रहण करे, फिर द्रव्य ग्रहण करे, वह सब तो स्थूलतामें जाता है।
यथार्थपने लक्षण ग्रहण करे, लक्षणके साथ लक्ष्य ग्रहण होता है। वह भिन्न-भिन्न स्थानमें नहीं रहते। जहाँ लक्षण है, वहीं लक्ष्य है और जो लक्ष्य है, वही लक्षण है। लक्ष्य और लक्षण दोनों एकसाथ है। दोनों साथमें ग्रहण होते हैं।
समाधानः- वह भाव बीचमें होते हैं। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि होते हैं। अन्दर आत्मा तो सबसे भिन्न, उसका स्वभाव भिन्न है, उसे पहचानना। सच्चा तो वही है, गुरुदेवने बताया है, भेदज्ञान करना।
मुमुक्षुः- भूतार्थ भाव ही, जिसकी दृष्टि करके, जो सम्यग्दृष्टिको गोचर है,..
समाधानः- पारिणामिकभाव न?
मुमुक्षुः- हाँ, पारिणामिकभाव। समाधनः- वह भाव है। उसकी दृष्टि करके यानी द्रव्य पर दृष्टि आती है। पारिणामिक भाव है उसमें कोई भेद नहीं पडता। उदयभाव, उपशमभाव सब अपेक्षित है, यह निरपेक्ष भाव है। पारिणामिकभावमेंं कोई अपेक्षा नहीं है। वह आत्माका सहज स्वरूप है। वह भाव है। इसलिये एक भाव पर दृष्टि रखनी ऐसा उसका आशय नहीं है। उसमें आशय पूर्ण द्रव्य पर दृष्टि करनेका है। पारिणामिकभावका अर्थ यह है।
पारिणामिक भावसे, प्रत्येक द्रव्य परमपारिणामिकभाव स्वरूप है। पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है। जो द्रव्यका सहज स्वरूप है, उस सहज स्वरूपसे द्रव्य है। सहज स्वरूपरूप ही रहता है। उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब सहजरूप यानी द्रव्यरूप ही है। यानी उसमें कोई भेद नहीं है। दृष्टि रखनी यानी एक भाव पर दृष्टि करनी, ऐसा नहीं है।