२५७
मुमुक्षुः- आपको तो नारियलके गोलेमें जैसे गोला भिन्न पड गया है, वैसे अनुभव तो हो गया है। और हमें तो एकतारूप परिणमन है, उसका क्या करना?
समाधानः- भिन्न पडनेका प्रयत्न करना। सबको एक ही करनेका है। न्यारा होनेका प्रयत्न करना। न्यारेकी रुचि हो तो न्यारा होनेका प्रयत्न करना। न्यारा जो आत्मा है, उसमें ही आनन्द और उसमें ही ज्ञान है। वही आनन्दका सागर, ज्ञानका सागर है। न्यारा पडनेकी जिसे रुचि हो उसे न्यारा होनेका प्रयत्न करना। एकता हो तो न्यारा होनेका प्रयत्न करना। वह एक ही (उपाय) है।
स्वयं एकत्वबुद्धि कर रहा है और न्यारा भी स्वयं ही हो सकता है। जन्म-मरण करनेवाला स्वयं ही है और मोक्ष जानेवाला भी स्वयं ही है। स्वयं स्वतंत्र है। अनादिके अभ्यासमें स्वयं कहीं-कहीं बाहरमें रुक गया है। अंतरमें ऐसा अभ्यास, वह जैसे सहज हो गया है, वैसा चैतन्यका अभ्यास (करे), स्वयं ऐसा चैतन्यका गाढ अभ्यास करे तो भिन्न पडे बिना रहता नहीं।
मुमुक्षुः- परका सहज हो गया है।
समाधानः- परका सहज हो गया है। यह तो स्वयं है, वह स्वयंका दुष्कर हो गया है। स्वयंको सहज करे, सहज होनेका प्रयत्न करे तो हो।
मुमुक्षुः- आप तो बहुत मदद करते हो। रुचि करनेमें आप ऐसी मदद नहीं कर सकते?
समाधानः- रुचि तो स्वयंको ही करनी पडती है न। रुचि तो अपने हाथकी बात है। रुचि कोई करवा नहीं देता। गुरुदेव मार्ग बताये कि ये चैतन्य और ये विभाव। सुख आत्मामें है, बाहर नहीं है। ऐसा बताये कि सुख तेरे आत्मामें है, बाहर नहीं है। गुरुदेव कहते हैं कि हम तुझे बताते हैं कि आत्मा कोई अनुपम है। उसकी रुचि तुझे लगे तो कर। समझनके अन्दर रुचि आ जाती है कि यह दुःख है और यह सुख है, ऐसा गुरुदेवने बताया। यदि तुझे सुख चाहिये तो आत्माकी रुचि कर। तुझे परिभ्रमण करना हो और रुचि नहीं करनी हो तो तेरे हाथकी बात है।
तुझे यदि आत्मामें-से सुख प्रगट करना हो तो उसकी रुचि कर। और समझनपूर्वक