१०६ उस मार्ग पर रुचि करके जा तो तुझे मार्ग सहज है, सुगम है। रुचिके साथ समझन आती है। समझनपूर्वक रुचि कर। (परका) सब सरल हो गया है और आत्मा समझना उसे दुष्कर हो गया है। स्वयं ज्ञानस्वभावी आत्मा ही है, ज्ञायकस्वभावी आत्मा है। सहज-सहज सब करता है। अंतरमें मुडनेमें उसे महिनत पडती है।
मुमुक्षुः- .. फिर बाहर आ जाता है।
समाधानः- बाहर आ जाता है, (क्योंकि) अनादिका अभ्यास है। रुचि मन्द पडे इसलिये बाहर चला जाता है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- करना तो स्वयंको है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- उपाय एक ही है। उपाय अनेक हो तो (दिक्कत हो)। वस्तुका स्वभाव एक ही उपाय है। अनेक उपाय हो तो मनुष्यको उलझनमें आना होता है। उपाय तो एक ही है, लेकिन स्वयं करता नहीं है।
वस्तुका स्वभाव आसान, सुगम और सरल है। गुरुदेव एक ही मार्ग कहते थे, मार्ग वस्तु स्वभाव-से एक ही है। गुरुदेव ऐसा कहते थे और वस्तुका स्वभाव भी वह है। उपाय एक ही है, करना स्वयंको है। होता नहीं इसलिये प्रश्न उत्पन्न होते हैं, कैसे करना? क्या करना? परन्तु अनादिके अभ्यासके कारण बाहर चला जाता है, इसलिये अंतरमें मुड नहीं सकता, अपनी मन्दताके कारण। मुडे तो भी पुनः बाहर चला जाता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ नहीं करता है। इसलिये वापस बाहर..
समाधानः- पुरुषार्थ नहीं करता है।
समाधानः- ... अपना करने जैसा है। (परिभ्रमण करते हुए) मुश्किल-से मनुष्यभव मिले। उसमें इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले, ऐसा संयोग मिला, ऐसा सब मिला। सबको लगे लेकिन शान्ति रखनेके अलावा कोई उपाय नहीं है। शान्ति रखनी। मौके पर शान्ति रखनी।
अनन्त जन्म-मरण किये, उसमें मुश्किल-से मनुष्यभव मिला। कितनी बार देवमें गया, कितनी बार मनुष्य (हुआ)। भावमें कितने ही विभावके भावोंमें परिवर्तन किया। उसमें बडी मुश्किल-से यह मनुष्यभव मिला, उसमें आत्माका करने जैसा है। जितना सम्बन्ध हो उतना लगे, परन्तु पूर्व भवमें कितनोंको छोडकर आया, स्वयंको छोडकर दूसरे चले जाते हैं। संसारका स्वरूप ही ऐसा है।
पूर्वमें कोई परिणाम किये हो उसके कारण सब सम्बन्धमें आते हैं। फिर जहाँ