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आयुष्य पूरा होता है वहाँ सब बिछड जाते हैं। संसारका स्वरूप है। कोई कहाँ-से आता है, कोई कहाँ-से आकर परिणामका मेल आकर इकट्ठे होते हैं। फिर-से बिछड जाते हैं। ऐसे जन्म-मरण कितने जीवने किये।
वर्तमान सम्बन्धके कारण दुःख लगे। ऐसे जन्म-मरण जीवने बहुत किये हैं। शास्त्रमें आता है, जन्म-मरण एक ही करे, सुख-दुःख वेदे एक। चार गतिमें भटकनेवाला एक और मोक्षमें जीव अकेला जाय। सब अकेला ही करनेवाला है। स्वयं अन्दर-से परिणाम (बदल देना)। गुरुदेव कहते हैं न? देव-गुरु-शास्त्र और आत्मा, ये दो करने जैसा है।
मुमुक्षुः- बारंबार-बारंबार इसीका रटन चाहिये, इसीका चिंतन चाहिये। ऐसा चाहिये, माताजी!
समाधानः- वही करने जैसा है। उसीका अभ्यास बारंबार करने जैसा है। चाहे जो प्रसंगमें वैराग्यमें आना, वैराग्यकी ओर मुडना वही आत्मार्थीका कर्तव्य है। यहाँ गुरुदेव भी ऐसा ही कहते थे कि, शरण हो तो एक आत्मा और देव-गुरु-शास्त्र है। (राग हो) इसलिये सबको ऐसा लगे।
... ऐसा हो जाय कि ऐसी ही कर लें। संसार ऐसा है। याद आवे परन्तु बारंबार समाधान करना वही एक उपाय है। वह एक ही उपाय है। बारंबार पुरुषार्थ। आत्मा सब-से न्यारा है। पूर्व भवके कारण सम्बन्ध बाँधे तो सम्बन्धके कारण ऐसा लगे कि ऐसा हुआ, ऐसा हुआ। परन्तु सम्बन्ध वर्तमान भव तक होते हैं। उस पर-से बार- बार विकल्प उठाकर अपनी तरफ मुडने जैसा है। मैं चैतन्य हूँ। पंचम कालमें ऐसे गुरु मिले। भगवान, शास्त्र आदि सबको याद करने जैसा है।
याद आये तो बार-बार बदल देना। भगवानको आहारदान... जुगलियाके भवमें तिर्यंच थे, आहारदानकी अनुमोदना की तो सबके भाव एक समान हो गये। तो समान भव हुए। किसीके परिणाम अलग हो जाते हैं तो कोई कहाँ, कोई कहाँ, ऐसा होता है। संसारका स्वरूप ही ऐसा है।
(मैं) आत्मा जाननेवाला हूँ। शाश्वत आत्मा (हूँ)। आत्मा तो शाश्वत है, देह बदलता है। बाकी आत्मा तो शाश्वत है। जहाँ जाय वहाँ आत्मा शाश्वत है। देह बदलता है। देह एकके बाद एक अन्य-अन्य देह जीव धारण करता है, अपने परिणाम अनुसार। आयुष्य पूरा हो जाय तो एक देहमें-से दूसरा देह धारण करता है। आत्मा तो वही शाश्वत है। दूसरा देह धारण करता है।
चार गतिमें जीव अनेक जातके देह धारण करता है। आत्मा तो शाश्वत रहता है। आत्माको बाहरकी वेदना या शरीरमें कुछ हो, कोई बाहरके ऐसे प्रसंग बने, आत्माको कुछ लागू नहीं पडता। आत्मा तो वैसाका वैसा है। आत्माको कुछ हानि नहीं होती