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ऐसे मुमुक्षुको भी ऐसा होता है कि मुझे आत्मा प्राप्त करना है, उसमें देव- गुरु-शास्त्रके बिना मुझे नहीं चलेगा। मैं साथमें रखता हूँ।
.. इस दुनियाको भूलकर चैतन्यकी दुनिया और देव-गुरु-शास्त्रकी दुनिया, उसे याद करने जैसा है, वह स्मरणमें रखने जैसा है। जगतमें दूसरा कुछ विशेष नहीं है।
.. उसमें-से आकर वाणी बरसाये। और तीर्थंकर भगवानकी वाणी निरंतर बरसे। गुरुदेवने भी तीर्थंकर भगवान जैसा ही काम अभी किया है। उनकी वाणी निरंतर बरसती रही, बरसों तक।
मुमुक्षुः- .. आलोचनाका पाठ बोला था।
समाधानः- आचार्यदेव खुद कहते हैं और गुरुदेव आलोचना पढते थे। गुरुदेवने उपदेशकी जमावट बरसों तक की थी। हृदयमें वह रखने जैसा है। ये पृथ्वीका राज प्रिय नहीं है, परन्तु तीन लोकका राज प्रिय नहीं है, वह सब मुझे तुच्छ लगता है। गुरु-उपदेशकी जमावट ही मुझे मुख्य है, कि जिसमें-से ज्ञायक प्रगट हो। वही मुझे मुख्य है। बाकी सब मुझे जगतमें तुच्छ है।
चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।