२६०
मुमुक्षुः- संस्कारको निरर्थक करनेवाला है,..
समाधानः- वह अपेक्षा अलग है। द्रव्य-से निरर्थक करनेवाला है। संस्कार सार्थक करे, द्रव्य अपेक्षा-से संस्कार निरर्थक है। वस्तुमें वह नहीं है। मूल स्वभाव... पर्यायकी बात है। पर्याय पलट जाती है, परन्तु व्यवहार यानी कुछ नहीं है, ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- तू पुरुषार्थ-से काम करे तो संस्कारको निमित्त कहें। ...
समाधानः- निगोदमें-से निकलकर तुरन्त वह होते हैं और फिर मनुष्य बनकर तुरन्त... उसमें संस्कार कहाँ थे? तेरा स्वभाव ज्ञायक है, वही तेरा संस्कार है। तेरा स्वभाव है वह। तेरा स्वभाव ही ज्ञायकरूप रहनेका है। तो ज्ञानस्वभावी है, वह तेरा ज्ञानस्वभाव ही तुझे तेरी परिणति ही ... तुझे यदि अंतरमें-से ऐसा होगा तो तेरा स्वभाव है वह स्वभाव ही संस्काररूप है।
तू चेतनता-से भरा है, कहीं जड तेरा स्वभाव नहीं है। चेतन तरफ तेरी परिणति, चेतनद्रव्य है वह तेरी परिणति, उसे तेरी ओर खीँचेगी। तेरा स्वभाव है। द्रव्य ही पर्यायको प्रगट होनेका कारण बनता है। द्रव्य पर दृष्टि गयी। तेरी पर्याय यथार्थ सम्यकरूप परिणमित हो जायेगी। तेरा स्वभाव ही सम्यकरूप है। यथार्थ ज्ञानस्वभाव है। वह स्वभाव ही उसका कारण है। सीधी तरह-से द्रव्य ही उसका कारण बनता है।
संस्कार एक परिणति है। परिणति उसका कारण हो, वह व्यवहार हुआ। द्रव्य ही उसका मूल कारण, द्रव्य ही कारण है। निश्चय-से तेरा मूल स्वभाव ज्ञायक ही है, वह स्वभाव ही उसका कारण बनता है। निगोदमें-से निकलता है, वह उसका स्वभव है। वह स्वभाव नहीं है, मैं तो यह चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। स्वभाव पर दृष्टि गयी, वहाँ परिणति पलट जाती है। वहाँ पहले संस्कारको दृढ करना पडा या मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा अभ्यास करना पडा, ऐसा कुछ नहीं है। सब अभ्यास एकसाथ ही हो गया। मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसा एकदम जल्दी दृढता हो गयी तो अंतर्मुहूर्तमें हो गया। और संस्कार अर्थात बार-बार, बार-बार देर लगे, मन्द पुरुषार्थके कारण देर लगे, मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी परिणति सहजरूप-से दृढ नहीं हुयी, इसलिये बार-बार, बार-बार अधिक काल अभ्यास किया, इसलिये उसे संस्कार कहा। उसमें तो अभ्यास करना कुछ रहा ही नहीं, तुरन्त एकदम पुरुषार्थ किया तो एकदम हो गया। उसमें संस्कार बीचमें लानेकी जरूरत नहीं पडती। मूल स्वभाव, ज्ञायक स्वभाव, अपना स्वभाव ही कारणरूप बनता है। फिर परिणतिके संस्कार करनेका बीचमें कोई अवकाश ही नहीं है। जिसका तीव्र पुरुषार्थ उत्पन्न हो, उसे कहीं बीचमें संस्कारकी जरूरत ही नहीं होती, द्रव्य ही उसका कारण बनता है।
मुमुक्षुः- उस अपेक्षा-से स्वभावको संस्कार निर्रथक करनेवाला कहा।