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समाधानः- निरर्थकर करनेवाला, द्रव्य संस्कारको निरर्थक करनेवाला है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- संस्कार डाले। उसमें द्रव्य कारण बनता है और एकदम अंतरमें जाते हैं। निगोमें-से निकलकर मनुष्य होकर, तुरन्त मैं ज्ञायक स्वभाव ही हूँ, ऐसे अंतर्मुहूर्तमें प्राप्त कर लेते हैं। बीचमें संस्कारकी कोई जरूरत ही नहीं पडती।
मुमुक्षुः- वैसे जल्दी काम हो, उसका कोई रास्ता बताओ तो काम आये।
समाधानः- स्वयं जल्दी पुरुषार्थ करे तो जल्दी हो जाय। धीरे-धीरे अभ्यास करता रहे कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, उसके बजाय मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे एकदम दृढता- से ... स्वयं एकदम विभाव-से छूटकर जाय तो जल्दी हो। पुरुषार्थ धीरे-धीरे करे इसलिये उसमें संस्कार बीचमें आते हैं। जल्दी करे तो बीचमें संस्कार आते ही नहीं। अभ्यास करे इसलिये संस्कार हुए। उसमें जल्दी किया। एकदम द्रव्य पर दृष्टि गयी और हो गया। कमर कसकर तैयार हुए हैं। प्रवचनसारमें (आता है)। ऐसे स्वयं तैयार होकर अंतरमें जाये तो एकदम हो जाता है।
मुमुक्षुः- प्रवचनसारमें (आता है), हमने कमर कसी है।
समाधानः- हाँ, कमर कसी है।
मुमुक्षुः- एक बार कहा था, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा विश्वास ला तो लंबा काल नहीं लगता।
समाधानः- लंबा काल नहीं लगता। एकदम दृढताके साथ। यदि विश्वासरूप- से परिणति एकदम दृढ हो जाय कि मैं ज्ञायक ही हूँ। विश्वास है ऐसी ही परिणति, मैं ज्ञायक हूँ, उसकी दृढता हुयी। मोहग्रन्थिका मैंने घात कर दिया है। अंतरमें तुरन्त हो जाता है। मोहग्रन्थिका घात करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करके चतुर्थ कालमें कितने ही अंतरमें लीनता कर दी, तो एकदम सम्यग्दर्शनका कार्य लीनतारूप एकदम हो जाता है, जो जल्दी करता है उसे।
विभावके संस्कार भी चले आते हैं। आता है, क्रोधादि तारतम्यता सर्पादिक मांही। विभावका संस्कार होते हैं, वैसे यह स्वभाव तरफकी रुचिके संस्कार वह भी उसे पूर्व भवमें आते हैं। परन्तु वह पुरुषार्थ करे तब उसे कारणरूप कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ करे उसे उपयोगी कहनेमें आये, न करे उसे..
समाधानः- पुरुषार्थ तीव्र हुआ और द्रव्य पर दृष्टि गयी तो संस्कारका वहाँ प्रयोजन नहीं रहा। अभ्यास करता रहे तो बीचमें संस्कार आते हैं। कितने ही जीव ऐसा अभ्यास करते-करते (आग जाते हैं)। एकदम अंतर्मुहूर्तमें हो जाय ऐसा कोई विरल होता है। बाकी अभ्यास करते-करते (आगे जाते हैं)। चतुर्थ कालमें जल्दी हो जाय ऐसे बहुत