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होते हैं। तो भी अंतर्मुहूर्तमें हो जाय ऐसे तो कोई विरल होते हैं। अभ्यास करते- करते (बहुभाग होता है)।
नींव खोदते-खोदते निधान प्राप्त हो जाय, ऐसा तो किसीको ही होता है। बाकी तो महेनत करते-करते होता है। उसमें भी यह तो पंचमकाल है।
मुमुक्षुः- पूर्णता प्रगट कर। वास्तवमें तो तुझे यह सिखाते हैं। वह नहीं हो तो श्रद्धा प्रगट कर, और श्रद्धा भी न कर सके तो गहरे संस्कार तो डाल।
समाधानः- संस्कार तो डाल। उपदेशकी ऐसी शैली (है)। कोई सुनाये तो उसे मुनिपनाका उपदेश देते हैं। फिर मुनि न हो सके तो श्रावकका उपदेश देते हैं। पहले उतनी शक्ति न हो तो श्रावकका उपदेश (देते हैं)। सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावक।
यह पंचमकाल है। सम्यग्दर्शन पर्यंत परिणति प्रगट करनेका उतना पुरुषार्थ न हो तो रुचिके संस्कार डाल (ऐसा कहते हैं)। यथार्थ रुचि (कर कि), आत्मा ज्ञायक है, ये सब भिन्न है। उसमें तो शुभभावमें, क्रियामें, थोडा शुभभाव हुआ उसमें धर्म मान लिया, उसकी तो श्रद्धा भी जूठी, उसका सब जूठा है।
मुमुक्षुः- उसके संस्कार भी जूठे। समाधानः- हाँ, सब जूठा है। मुमुक्षुः- असतके संस्कार। समाधानः- धर्म दूसरे प्रकार-से माना। कोई कर देगा ऐसा माने। ऐसी कुछ- कुछ भ्रमणाएँ होती हैं। ये गुरुदेवके प्रताप-से वह सब भ्रमणा दूर हुयी है, गुरुदेवने सबको उपदेश दे-दे कर। भगवान कर देंगे, मन्दिरमें जायेंगे तो होगा, ऐसा करेंगे तो होगा, ऐसी सब भ्रमणा (चलती थी)। गुरुदेवने कहा, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। तू कर तो होगा। शुभभाव आये देव-गुरु-शास्त्र तरफके, भक्ति आवे वह अलग बात है। परन्तु अंतरमें करना तो तुझे है।