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मुमुक्षुः- प्रत्येक पर्यायका परिणमन स्वतंत्र है। वह संस्कार आगे-पीछे...
समाधानः- परिणमन स्वतंत्र है, परन्तु संस्कार, वस्तु अपेक्षा-से संस्कार नहीं है, परन्तु पर्याय अपेक्षा-से संस्कार है। जो प्रत्यभिज्ञान होता है या पूर्वका जो याद आता है, वह सब प्रत्यभिज्ञान है, अतः वह संस्कार ही है। इसलिये संस्कार इस प्रकार काम करते हैं। स्वयं अन्दर ज्ञायकका बार-बार, बार-बार अभ्यास करे तो वह संस्कार पर्याय अपेक्षा-से उसे काम करते हैं। पर्याय नहीं है, सर्वथा नहीं है, ऐसा नहीं है।
वस्तुमें वह संस्कार वस्तु अपेक्षा-से नहीं कह सकते, परन्तु पर्याय अपेक्षा-से संस्कार है। और पर्याय सर्वथा है ही नहीं ऐसा नहीं है। इसलिये संस्कार काम करते हैं। ज्ञायक स्वयं शुद्धात्मा है। जैसे विभावके संस्कार पडते हैं, जो अनादिके (हैं), जैसे क्रोधका संस्कार और विभावका संस्कारका जैसे चला आता है, ऐसे स्वभाव तरफके संस्कार डाले तो वह संस्कार भी जीवको काम आते हैं। जैसे मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसे जो संस्कार अन्दर गहराई-से डले हो तो वह संस्कार उसे प्रगट होनेका कारण बनता है।
गुरुदेवने तो अपूर्व उपकार किया है। बारंबार आत्माका स्वरूप समझाया है। गुरुदेव तो इस जगतमें एक प्रभातस्वरूप सूर्य समान थे। उन्होंने ज्ञायक स्वरूपकी पहचान करवायी। और बारंबार उपदेशकी जमावट की है। वह तो कोई अपूर्व है। वह संस्कार स्वयं अन्दर डाले, अंतरमें-से जिज्ञासापूर्वक अन्दर बारंबार उसका अभ्यास करके (डाले) तो वह संस्कार सर्व अपेक्षा-से काम नहीं करते हैं, ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- ... उसमें धर्मकी अशातना बहुत की हो, ऐसा कारण होता है? बहुत बार तो ऐसा होती है कि सत्पुरुषको प्राप्त करनेकी अर्थात मिलनेकी बहुत इच्छा हो और संयोग भी ऐसे ही हो कि बन नहीं पाता। तो उसमें पुरुषार्थकी कमी तो नहीं है, उसकी इच्छा तो है किसी भी प्रकार-से आनेकी।
समाधानः- सत्पुरुषको मिलनेकी?
मुमुक्षुः- ... परन्तु सत्पुरुष नहीं मिल सकते उसमें ऐसे ही कोई कारण बन जाते हैं कि उसमें पुरुषार्थका ...
समाधानः- उसमें पुरुषार्थका कारण नहीं है। सत्पुरुष बाहर-से मिलना वह पुण्यका