कारण है। वह बाहर-से नहीं मिलते। वह पुरुषार्थ-से नहीं मिलता। अपने चैतन्यमें पुरुषार्थ काम करता है। क्योंकि चैतन्य स्वयं स्वतंत्र है, उसमें स्वभाव प्रगट करना वह अपने हाथकी बात है। सत्पुरुष मिलना वह पुण्यका प्रकार है। वह वस्तु पर होती है। इसलिये उस जातके पुण्य हो तो सत्पुरुष मिलते हैं।
स्वयं भावना भाता रहे, उसमेंं ऐसा पुण्य बँध जाय तो सत्पुरुष मिलते हैं। वह पुण्य-से मिलता है, पुरुषार्थ-से नहीं मिलता है। स्वयं भावना भाता रहे कि मुझे सत्पुरुष मिले, मिले, परन्तु ऐसा कोई पुण्यका योग हो तो मिलते हैं। पुरुषार्थ-से नहीं मिलते। पुण्य है वह अलग वस्तु है और अन्दर पुरुषार्थ-से आत्माकी प्राप्ति करनी वह अलग है और सत्पुरुष मिलना वह पुण्यका कारण है।
मुमुक्षुः- सत्पुरुष नहीं मिलना वह पापका कारण है?
समाधानः- हाँ, वह पापका कारण है। नहीं मिलते हैं वह अपना उस जातिका पुण्यका योग नहीं है अथवा उस जातिका पापका उदय है। पंचमकालमें जन्म हो और जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी दुर्लभता हो, सच्चे गुरु मिलने, जिनेन्द्र देव साक्षात मिलने, सच्चे शास्त्र हाथमें क्वचित ही मिले, ऐसा सब हो उसमें अपनी क्षति है। दुषमकालमें जन्म हुआ वह भी अपने पुण्यकी क्षति है। उस जातका पापका उदय है कि इस कालमें जन्म होता है। वह पुण्य-पापका संयोग है, अपने हाथकी बात नहीं है। परन्तु अपनी भावना हो तो उस जातका पुण्य बँध जाता है कि उस पुण्य-से सत्पुरुष मिलते हैं।
मुमुुक्षुः- पुरुषार्थ सिर्फ चेतनमें-अपनेमें करे। समाधानः- अपनेमें पुरुषार्थ काम करता है। बाह्य वस्तुएँ प्राप्त होनी वह सब पुण्यका कारण है। वह स्वयं नहीं कर सकता।
इस कालमें-पंचमकालमें गुरुदेव पधारे वह महापुण्यका योग था। इसलिये सबको उस जातका गुरुदेवका योग प्राप्त हुआ, सत्पुरुषका योग प्राप्त हुआ। उनकी वाणी मिलनी, दर्शन मिलना, सान्निध्य मिलना, सतसमागम मिलना वह सब पुण्यका प्रकार है। लेकिन वह ऐसी शुभभावना भाये तो वैसा पुण्य बँधता है।
बाह्य संयोग मिलना, शरीरमें फेरफार होना, बाह्यका कुछ मिलना, नहीं मिलना वह सब पुण्यके कारण है। शाता वेदनीय (होनी) वह पुण्यका प्रकार है। अंतरमें पुरुषार्थ करना और आत्माको पहिचानना वह सब पुरुषार्थका कार्य है। परन्तु अनन्त काल- से जीवको सच्चा मिला नहीं है अथवा यथार्थ गुरुका योग नहीं मिला है, उसका कारण अपनी उस जातकी भावना, जिज्ञासा, ऐसा पुण्य नहीं था। उपादान तैयार हो तो उसे निमित्त मिले बिना रहता ही नहीं। ऐसी यदि अपनी जिज्ञासा तैयार हो तो बाहरका ऐसा पुण्य हो जाता है कि जिससे ऐसा योग प्राप्त हो जाता है।