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भी उसकी भूतकी, भविष्यकी सब योग्यता है। वह पर्यायरूप परिणमती नहीं, परन्तु उसकी शक्तिओंमें वह सब है। सामान्य स्वरूप-से है।
मुमुक्षुः- पर्याय द्रव्यमें-से आती है ऐसा कहनेमें आता है, वह बराबर है?
समाधानः- हाँ, पर्याय द्रव्यमें-से आती है। द्रव्यमें-से अर्थात द्रव्य परिणमकर ही पर्याय होती है। पर्याय कहीं ऊपर-से नहीं आती है। पर्याय उसमें परिणमनरूप नहीं है, सामान्यरूप है, परन्तु द्रव्य परिणमकर ही पर्याय होती है। द्रव्य स्वयं परिणमित होकर पर्याय होती है। पर्याय निराधार नहीं होती, द्रव्यके आश्रय-से पर्याय होती है।
मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेव इस बार सुप्रभातके दिन बहुत सुन्दर बात लेते थे और अन्दरमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य कैसे प्रगट हो, उसका सुन्दर कलश लेते थे। परन्तु आज देखा, पीछले कलशमें जिसे ज्ञाननय औ क्रियानयकी परस्पर मैत्री हो, उसको ही ऐसा परिणमन होता है, ऐसी बात ली। तो ज्ञाननय और क्रियानयका मैत्रीका सम्बन्ध क्या होगा?
समाधानः- गुरुदेव तो कुछ अलग (थे), उनकी बात तो अलग है। ज्ञाननय और क्रियानय, जो उसकी मैत्री करे कि मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे अंतरमें-से जिसने ग्रहण किया, अपना अस्तित्व जिसने ग्रहण किया, वह अन्दर-से राग-से निवृत्त हो और स्वयं अपनेमें लीनता करे कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायकरूप परिणमन करे तो वह ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्री है। ज्ञायककी ज्ञायकरूप परिणति न करे और मात्र मैं ज्ञायक हूँ, सब उदयाधीन है, सब विभाव है, ऐसे मात्र वह बोलता रहे और अंतरमें-से यदि भेदज्ञान न हो और ज्ञायक हूँ (ऐसी) ज्ञायकरूप परिणति न हो, ज्ञायकरूप परिणति न हो तो मात्र वह ज्ञान बोलनेरूप होता है। और क्रियामें शुभ परिणाम करके उसमें संतुष्ट हो जाय तो भी वह क्रियामें रुक जाता है। परन्तु अपना अस्तित्व ग्रहण करके मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा जानकर रागसे भिन्न पडकर ज्ञायकका ज्ञायकरूप परिणमन करे तो वह ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्री है। तो अनेकान्तपने उसने यथार्थ आत्माको ग्रहण किया है।
मैं चैतन्यद्रव्य अखण्ड शाश्वत हूँ। जैसा ज्ञायक है उस रूप परिणति करनेका पर्यायमें भी वैसा अभ्यास करता है। राग-से निवर्तता है और अपनेमें स्वरूपकी परिणति प्रगट करता है। तो उसे वास्तवमें भेदज्ञान और ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी है। मात्र अकेली क्रियामें संतुष्ट हो जाय और बोलनेमें मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा करता रहे और सब उदयाधीन है और अंतरमें राग-से निवर्तता नहीं और भेदज्ञानकी परिणति करता नहीं है तो उसे ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्री नहीं है।
द्रव्यदृष्टि उसे कहते हैं कि स्वयं चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करके ज्ञायककी परिणति